महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद
इलाहाबाद अब का प्रयागराज क्रांतिकारियों का गढ़ था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल आज भी उसकी कहानी बया करतीं हैं। सबसे बड़ा स्थल तो अल्फ्रेड पार्क जिसे अब लोग आजाद पार्क के नाम से जानते हैं जहां अपनी वीरता और बलिदान की निशानी छोड़ गए महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद। साल दो साल पहले प्रदर्शनी लगा था उसी की तस्वीरें मैं यहां साझा कर रहा हूं।
आजादी की लड़ाई में प्रयागराज की भूमिका अग्रणी रही. 1857 की स्वतंत्रता संग्राम में प्रयागराज से हजारों की संख्या में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया. इसके प्रत्यक्ष उदाहरण चौक में स्थित नीम का पेड़ और सुलेम सराय में स्थित फांसी इमली पेड़ है..!
जनरल जेम्स नील के आदेश पर ब्रिटिश सेना ने 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशवासियों के विद्रोह को कुचल दिया था। बाजार के बीचों-बीच, एक चर्च और कोतवाली के पास , एक नीम का पेड़ है। पेड़ के बगल में खड़े स्मारक पर एक शिलालेख है जिसमें लिखा है कि यह शहीद स्मारक उन 800 लोगों की याद में बनाया गया था जिन्हें जून 1857 में इस इलाके में सात पेड़ों पर फांसी दी गई थी। पोस्टरों और होर्डिंग्स ने स्मारक को खराब कर दिया है और फीके पड़ चुके शिलालेख को पढ़ना मुश्किल है। एक और स्मारक है जो एक फुटस्टोन के आकार का है जिसे भी खराब कर दिया गया है।सात पेड़ों में से सिर्फ़ यही एक पेड़ बचा हुआ है। स्थानीय लोगों का कहना है कि एक समय में यह पेड़ काफी घना था, लेकिन चौक पर बिजली के खंभे लगाने और दुकानें और घर बनाने के लिए इसकी शाखाओं को काट दिया गया। आजकल, सिर्फ़ स्वतंत्रता दिवस या दूसरे राष्ट्रीय दिवसों पर ही लोग यहाँ फूल चढ़ाकर श्रद्धांजलि देने आते हैं।
इलाहाबाद( वर्तमान में प्रयागराज) में इस सामूहिक फांसी की घटना का उल्लेख कई ऐतिहासिक पुस्तकों और दस्तावेजों में मिलता है। हीदर स्ट्रीट ने Rebellion of 1857 Origins, Consequences and the Themes में लिखा है : 1857 को इलाहाबाद पहुंचने के बाद, नील ने हजारों सिपाहियों और संदिग्ध विद्रोहियों के साथ-साथ निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार था। इलाहाबाद के आसपास नील की सेना की कार्रवाइयों का वर्णन करते हुए, एक अधिकारी ने लिखा: 'जो भी मूल निवासी दिखाई दिया, उसे बिना किसी सवाल के गोली मार दी गई, और सुबह कर्नल नील ने रेजिमेंट की टुकड़ियाँ भेजीं ... और हमारे बंगलों के खंडहरों के पास के सभी गाँवों को जला दिया, और जितने भी मूल निवासी पकड़े गए, उन्हें सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर लटका दिया।'"
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जनरल नील की क्रूरता और इलाहाबाद में फांसी का भी जिक्र किया है। "मेरे अपने शहर और जिले इलाहाबाद और पड़ोस में जनरल जेम्स नील (1810 - 1857) ने अपना 'खूनी असाइज' किया था। सैनिक और नागरिक समान रूप से खूनी असाइज कर रहे थे, या बिना किसी असाइज के मूल निवासियों की हत्या कर रहे थे, चाहे उनकी उम्र या लिंग कुछ भी हो। यह हमारे ब्रिटिश संसद के रिकॉर्ड में है, गवर्नर-जनरल इन काउंसिल द्वारा घर भेजे गए कागजात में, कि 'बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों के साथ-साथ विद्रोह के दोषियों की भी बलि दी जाती है'।"
कुछ दस्तावेजों के अनुसार, इन पेड़ों पर फांसी के फंदे लटकाए गए थे और लोगों को गाड़ियों में भरकर फांसी पर चढ़ाया गया था। भागने की कोशिश करने वालों को गोली मार दी गई। आस-पास के कई गांव जला दिए गए।
'पेड़ चौक इलाहाबाद के अभी गवाही देते हैं।
खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू के पीते हैं।।'
1857 क्रांति की पूर्व संध्या पर इन पंक्तियों को याद कर ताम्रपत्र प्राप्त किए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ओम प्रकाश जायसवाल 'लल्लू मरकरी' बताते हैं, कि चंद्रशेखर आजाद ने अपने खून से इंकलाब लिख दिया था। वो एक ऐसे वीर सेनानी थे जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी कांपती थी।
ये देश का नक्शा निश्चिंत ही HSRA के क्रांतिकारियों द्वारा बनाया गया है।
इस लेख को जरूर पढ़ें~ काकोरी के वीरों से परिचय
माय डियर दीदी, फैजाबाद जेल,16 दिसंबर 1927
मैं अगली दुनिया में जा रहा हूं, जहां कोई सांसारिक पीड़ा नहीं है और बेहतर जीवन के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। जहां न मृत्यु होगी न विनाश होगा। मैं मरने वाला नहीं, बल्कि हमेशा के लिए जीने वाला हूं। अंतिम दिन सोमवार है। मेरा आखिरी बंदे (चरण स्पर्श) स्वीकार करो... मुझे गुजर जाने दो। आपको बाद में पता चलेगा कि मैं कैसे मरा। भगवान का आशीर्वाद हमेशा आपके साथ रहे। आप सबको एक बार देखने की इच्छा है। यदि संभव हो तो मिलने आना। बख्शी को मेरे बारे में बताना। मैं आपको अपनी बहन मानता हूं और आप भी मुझे नहीं भूलेंगी। खुश रहो... मैं हीरो की तरह मर रहा हूं।
-तुम्हारा अशफाक उल्ला
वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं..।
9 अगस्त, 1925 को शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला और उनकेअन्य क्रान्तिकारी साथियों ने क्रान्तिकारी पार्टी के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से लखनऊ के करीब काकोरी के पास रेलगाड़ी रोक सरकारी खजाना लूटा। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद के अलावा बाकी सभी क्रान्तिकारी पकड़े गये। भगतसिंह भी तब कानपुर निवास के समय हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी में भर्ती हो चुके थे। 'विद्रोही' नाम से मई, 1927 में भगत सिंह ने 'काकोरी के वीरों से परिचय' शीर्षक लेख पंजाबी में छपवाया। उस लेख के छपते ही भगतसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। चारपाई पर हथकड़ी लगे बैठे भगतसिंह का प्रसिद्ध चित्र इसी गिरफ्तारी के समय लिया गया।
उ०प्र० राजकीय अभिलेखागार की प्रदर्शनी एक तस्वीर भगत सिंह के फांसी के सजा के आदेश की भी दिखी। जिसमें स्मार्ट फोन के कैमरे में कैद कर लिया गया।
अपने साथियों के चले जाने के बाद भी चंद्रशेखर आज़ाद अंडरग्राउंड होकर लगातार काम करते रहे। उन्होंने अपने साथी भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना पर फोकस किया लेकिन 27 फरवरी, 1931 को जब आज़ाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने साथी क्रांतिकारी सुखदेव राज से मिलने गए थे, तभी पुलिस को उनके बारे में पता लगा और उन्हें घेर लिया गया।आज़ाद इलाहाबाद के एल्फ़्रेड पार्क में अपने साथी सुखदेवराज के साथ बैठे बात कर रहे थे कि सामने की सड़क पर एक मोटर आकर रुकी, जिसमें से एक अंग्रेज़ अफ़सर नॉट बावर और दो सिपाही सफ़ेद कपड़ों में नीचे उतरे।
सुखदेवराज लिखते हैं, 'मोटर खड़ी होते ही हम लोगों का माथा ठनका। गोरा अफ़सर हाथ में पिस्तौल लिए सीधा हमारी तरफ़ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से अंग्रेज़ी में पूछा, 'तुम लोग कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?' आजाद का हाथ अपनी पिस्तौल पर था और मेरा अपनी। हमने उसके सवाल का जवाब गोली चलाकर दिया..! मगर गोरे अफ़सर की पिस्तौल पहले चली और उसकी गोली आज़ाद की जाँघ में लगी, वहीं आज़ाद की गोली गोरे अफ़सर के कंधे में लगी। दोनों तरफ़ से दनादन गोलियाँ चल रही थीं। अफ़सर ने पीछे दौड़कर मौलश्री के पेड़ की आड़ ली। उसके सिपाही कूद कर नाले में जा छिपे। इधर हम लोगों ने जामुन के पेड़ को आड़ बनाया। एक क्षण के लिए लड़ाई रुक सी गई। तभी आज़ाद ने मुझसे कहा मेरी जाँघ में गोली लग गई है। तुम यहाँ से निकल जाओ.'
सुखदेवराज आगे लिखते हैं, 'आज़ाद के आदेश पर मैंने निकल भागने का रास्ता देखा. बाईं ओर एक समर हाउस था। पेड़ की ओट से निकलकर मैं समर हाउस की तरफ़ दौड़ा। मेरे ऊपर कई गोलियाँ चलाई गईं, लेकिन मुझे एक भी गोली नहीं लगी। जब मैं एल्फ़्रेड पार्क के बीचों-बीच सड़क पर आया तो मैंने देखा कि एक लड़का साइकिल पर जा रहा है। मैंने उसे पिस्तौल दिखाकर उसकी साइकिल छीन ली। वहाँ से मैं साइकिल पर घूमते-घूमते चाँद प्रेस पर पहुँचा। चाँद के संपादक रामरख सिंह सहगल हमारे समर्थकों में से थे। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं हाज़िरी रजिस्टर पर फ़ौरन दस्तख़त करूँ और अपनी सीट पर बैठ जाऊँ.'
डिप्टी एसपी ठाकुर विश्ववेश्वर सिंह और पुलिस अधीक्षक सर जॉन नॉट बावर ने पूरे पार्क को घेर लिया था।
बावर ने पेड़ की आड़ लेकर चंद्रशेखर आज़ाद पर गोली चलाई जो उनकी जांघ को चीरकर निकल गई। दूसरी गोली विश्ववेश्वर सिंह ने चलाई, जो उनकी दाहिनी बांह में लगी। घायल होने के बाद आज़ाद लगातार बाएं हाथ से गोली चलाते रहे। आज़ाद ने जवाबी हमले में जो गोली चलाई वह विश्ववेश्वर सिंह के जबड़े में लगी।
उस समय में उत्तर प्रदेश के आईजी रहे हॉलिंस ने 'मेन ओनली' पत्रिका के अक्तूबर, 1958 के अंक में लिखा था, "आज़ाद की पहली ही गोली नॉट बावर के कंधे में लगी थी। पुलिस इंस्पेक्टर विशेश्वर सिंह आज़ाद पर गोली चलाने के फेर में एक पेड़ के पीछे छिपे हुए थे।"
"तब तक आज़ाद को दो या तीन गोलियाँ लग चुकी थीं लेकिन तब भी उन्होंने विशेश्वर के सिर का निशाना लगाया और वो गोली निशाने पर लगी। उस गोली ने विशेश्वर का जबड़ा तोड़ दिया। ये आज़ाद के जीवन की आखिरी लेकिन सबसे बड़ी लड़ाई थी ! "
हॉलिंस आगे लिखते हैं, "आज़ाद इतने अच्छे निशानेबाज़ थे कि उनकी चलाई हुई हर गोली सामने के पेड़ पर एक आदमी की औसत ऊँचाई की दूरी पर लगी थी। दूसरी तरफ़ नॉट बावर और विशेश्वर सिंह की गोलियाँ 10-12 फ़ीट की ऊँचाई पर लगी थीं। मैंने आज़ाद से अच्छा निशानेबाज़ अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। "
इससे प्रतीत होता था कि आज़ाद का अंतिम समय तक मानसिक संतुलन कितना ठीक था जब कि पुलिस वाले अंधाधुँध गोलियाँ चला रहे थे ।
आज़ाद के मरने के बाद भी नॉट बावर की हिम्मत नहीं हुई कि वो उनके पास जाएं। उसने अपने एक सिपाही को आदेश दिया कि ये देखने के लिए कि आज़ाद जीवित तो नहीं हैं, उनके पैरों पर फ़ायर करो। उसी समय भटुकनाथ अग्रवाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी के छात्र थे और हिन्दू छात्रावास में रहते थे। बाद में उन्होंने लिखा कि 27 फ़रवरी की सुबह जब वो हिन्दू बोर्डिंग हाउस के गेट पर पहुँचे तो उन्हें गोली चलने की आवाज़ सुनाई दी। तब तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र अल्फ़्रेड पार्क के आसपास इकट्ठा होने शुरू हो गए थे।
दो मजिस्ट्रेटों ख़ास साहब रहमान बख़्श और ठाकुर महेंद्रपाल सिंह के सामने चंद्रशेखर आज़ाद के पार्थिव शरीर का निरीक्षण किया गया।
आठ लोगों ने उनके पार्थिव शरीर को उठाकर एक गाड़ी में रखा। लेफ़्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड और उनके दो साथियों डॉक्टर गेड और डॉक्टर राधेमोहन लाल ने आज़ाद के शव का पोस्टमॉर्टम किया।
आज़ाद के दाहिने पैर के निचले हिस्से में दो गोलियों के घाव थे। गोलियों से उनकी टीबिया बोन भी फ़्रैक्चर हुई थी। एक गोली दाहिनी जाँघ से निकाली गई। एक गोली सिर के दाहिनी ओर पेरिएटल बोन को छेदती हुई दिमाग में जा घुसी थी और दूसरी गोली दाहिने कंधे को छेदती हुई दाहिने फ़ेफड़े पर जा रुकी थी।
विश्वनाथ वैशम्पायन लिखते हैं, 'आज़ाद का शव चूँकि भारी था, इसलिए उसे स्ट्रेचर पर नहीं रखा जा सका। चंद्रशेखर आज़ाद चूँकि ब्राह्मण थे, इसलिए पुलिस लाइन से ब्राह्मण रंगरूट बुलवाकर उन्हीं से शव उठवाकर लॉरी में रखा गया था।"
अल्फ़्रेड पार्क में जिस पेड़ के पीछे आज़ाद की मृत्यु हुई थी, आम लोगों ने कई जगह आज़ाद लिख दिया था।
वहाँ की मिट्टी भी लोग उठा कर ले गए थे. उस स्थान पर रोज़ लोगों की भीड़ लगने लगी. लोग वहाँ फूल मालाएं चढ़ाने और दीपक जलाकर आरती करने लगे।
इसलिए एक दिन अंग्रेज़ों ने रातों-रात उस पेड़ को जड़ से काट कर उसका नामोनिशान मिटा दिया और ज़मीन बराबर कर दी थी. काटे हुए पेड़ को एक सैनिक लॉरी में लाद कर दूसरे स्थान पर फेंक दिया गया.
अक्तूबर, 1939 में उसी जगह पर बाबा राघवदास ने एक और जामुन के पेड़ को लगाया। जो आज भी वहां मौजूद है।
चंद्रशेखर आज़ाद हमेशा आजाद रहे । ब्रिटिश राज कभी इन्हें गुलाम नहीं रख पाई जबतक जीवित रहे।
उन्होंने खुद को सर में गोली मारी थी और अपनी मृत्यु के माध्यम से उन्होंने "कभी भी जीवित नहीं पकड़े जाने का अपना संकल्प सुनिश्चित किया। अंतिम समय तक आज़ाद (स्वतंत्र) रहे।"
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,
आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे....!"