Friday, April 11, 2025

क्रांति और क्रांतिकारियों का शहर

    महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद 


इलाहाबाद अब का प्रयागराज क्रांतिकारियों का गढ़ था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल आज भी उसकी कहानी बया करतीं हैं। सबसे बड़ा स्थल तो अल्फ्रेड पार्क जिसे अब लोग आजाद पार्क के नाम से जानते हैं जहां अपनी वीरता और बलिदान की निशानी छोड़ गए महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद। साल दो साल पहले प्रदर्शनी लगा था उसी की तस्वीरें मैं यहां साझा कर रहा हूं।

आजादी की लड़ाई में प्रयागराज की भूमिका अग्रणी रही. 1857 की स्वतंत्रता संग्राम में प्रयागराज से हजारों की संख्या में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया. इसके प्रत्यक्ष उदाहरण चौक में स्थित नीम का पेड़ और सुलेम सराय में स्थित फांसी इमली पेड़ है..!
जनरल जेम्स नील के आदेश पर ब्रिटिश सेना ने 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशवासियों के विद्रोह को कुचल दिया था। बाजार के बीचों-बीच, एक चर्च और कोतवाली के पास , एक नीम का पेड़ है। पेड़ के बगल में खड़े स्मारक पर एक शिलालेख है जिसमें लिखा है कि यह शहीद स्मारक उन 800 लोगों की याद में बनाया गया था जिन्हें जून 1857 में इस इलाके में सात पेड़ों पर फांसी दी गई थी। पोस्टरों और होर्डिंग्स ने स्मारक को खराब कर दिया है और फीके पड़ चुके शिलालेख को पढ़ना मुश्किल है। एक और स्मारक है जो एक फुटस्टोन के आकार का है जिसे भी खराब कर दिया गया है।
सात पेड़ों में से सिर्फ़ यही एक पेड़  बचा हुआ है। स्थानीय लोगों का कहना है कि एक समय में यह पेड़ काफी घना था, लेकिन चौक पर बिजली के खंभे लगाने और दुकानें और घर बनाने के लिए इसकी शाखाओं को काट दिया गया। आजकल, सिर्फ़ स्वतंत्रता दिवस या दूसरे राष्ट्रीय दिवसों पर ही लोग यहाँ फूल चढ़ाकर श्रद्धांजलि देने आते हैं।
इलाहाबाद( वर्तमान में प्रयागराज) में इस सामूहिक फांसी की घटना का उल्लेख कई ऐतिहासिक पुस्तकों और दस्तावेजों में मिलता है। हीदर स्ट्रीट ने Rebellion of 1857 Origins, Consequences and the Themes में लिखा है : 1857 को इलाहाबाद पहुंचने के बाद, नील ने हजारों सिपाहियों और संदिग्ध विद्रोहियों के साथ-साथ निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार था। इलाहाबाद के आसपास नील की सेना की कार्रवाइयों का वर्णन करते हुए, एक अधिकारी ने लिखा: 'जो भी मूल निवासी दिखाई दिया, उसे बिना किसी सवाल के गोली मार दी गई, और सुबह कर्नल नील ने रेजिमेंट की टुकड़ियाँ भेजीं ... और हमारे बंगलों के खंडहरों के पास के सभी गाँवों को जला दिया, और जितने भी मूल निवासी पकड़े गए, उन्हें सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर लटका दिया।'"

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जनरल नील की क्रूरता और इलाहाबाद में फांसी का भी जिक्र किया है। "मेरे अपने शहर और जिले इलाहाबाद और पड़ोस में जनरल जेम्स नील (1810 - 1857) ने अपना 'खूनी असाइज' किया था। सैनिक और नागरिक समान रूप से खूनी असाइज कर रहे थे, या बिना किसी असाइज के मूल निवासियों की हत्या कर रहे थे, चाहे उनकी उम्र या लिंग कुछ भी हो। यह हमारे ब्रिटिश संसद के रिकॉर्ड में है, गवर्नर-जनरल इन काउंसिल द्वारा घर भेजे गए कागजात में, कि 'बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों के साथ-साथ विद्रोह के दोषियों की भी बलि दी जाती है'।"

कुछ दस्तावेजों के अनुसार, इन पेड़ों पर फांसी के फंदे लटकाए गए थे और लोगों को गाड़ियों में भरकर फांसी पर चढ़ाया गया था। भागने की कोशिश करने वालों को गोली मार दी गई। आस-पास के कई गांव जला दिए गए।

'पेड़ चौक इलाहाबाद के अभी गवाही देते हैं।
खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू के पीते हैं।।'

1857 क्रांति की पूर्व संध्या पर इन पंक्तियों को याद कर ताम्रपत्र प्राप्त किए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ओम प्रकाश जायसवाल 'लल्लू मरकरी' बताते हैं, कि चंद्रशेखर आजाद ने अपने खून से इंकलाब लिख दिया था। वो एक ऐसे वीर सेनानी थे जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी कांपती थी।
किसी न्यूज वेबसाइट और इंटरनेट से ये तस्वीरें मिली हैं।


ये देश का नक्शा निश्चिंत ही HSRA के क्रांतिकारियों द्वारा बनाया गया है।


ये अद्भुत लगा देखकर कि तमाम क्रांतिकारियो के मूल हस्ताक्षर सहेज कर रखे गए हैं।



प्रदर्शनी में काकोरी कांड के सभी क्रांतिकारियों की सामूहिक फोटो प्रदर्शित की गई।

इस लेख को जरूर पढ़ें~ काकोरी के वीरों से परिचय


माय डियर दीदी, फैजाबाद जेल,16 दिसंबर 1927

 मैं अगली दुनिया में जा रहा हूं, जहां कोई सांसारिक पीड़ा नहीं है और बेहतर जीवन के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। जहां न मृत्यु होगी न विनाश होगा। मैं मरने वाला नहीं, बल्कि हमेशा के लिए जीने वाला हूं। अंतिम दिन सोमवार है। मेरा आखिरी बंदे (चरण स्पर्श) स्वीकार करो... मुझे गुजर जाने दो। आपको बाद में पता चलेगा कि मैं कैसे मरा। भगवान का आशीर्वाद हमेशा आपके साथ रहे। आप सबको एक बार देखने की इच्छा है। यदि संभव हो तो मिलने आना। बख्शी को मेरे बारे में बताना। मैं आपको अपनी बहन मानता हूं और आप भी मुझे नहीं भूलेंगी। खुश रहो... मैं हीरो की तरह मर रहा हूं। 

-तुम्हारा अशफाक उल्ला


       जिंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
       वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं..।

9 अगस्त, 1925 को शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला और उनकेअन्य क्रान्तिकारी साथियों ने क्रान्तिकारी पार्टी के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से लखनऊ के करीब काकोरी के पास रेलगाड़ी रोक सरकारी खजाना लूटा। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद के अलावा बाकी सभी क्रान्तिकारी पकड़े गये। भगतसिंह भी तब कानपुर निवास के समय हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी में भर्ती हो चुके थे। 'विद्रोही' नाम से मई, 1927 में भगत सिंह ने 'काकोरी के वीरों से परिचय' शीर्षक लेख पंजाबी में छपवाया। उस लेख के छपते ही भगतसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। चारपाई पर हथकड़ी लगे बैठे भगतसिंह का प्रसिद्ध चित्र इसी गिरफ्तारी के समय लिया गया। 
उ०प्र० राजकीय अभिलेखागार की प्रदर्शनी एक तस्वीर भगत सिंह के फांसी के सजा के आदेश की भी दिखी। जिसमें स्मार्ट फोन के कैमरे में कैद कर लिया गया। 

ये तस्वीर भारत माता के महान सपूत क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के बलिदान को दिखा रहा है।

अपने साथियों के चले जाने के बाद भी चंद्रशेखर आज़ाद अंडरग्राउंड होकर लगातार काम करते रहे। उन्होंने अपने साथी भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना पर फोकस किया लेकिन 27 फरवरी, 1931 को जब आज़ाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने साथी क्रांतिकारी सुखदेव राज से मिलने गए थे, तभी पुलिस को उनके बारे में पता लगा और उन्हें घेर लिया गया।आज़ाद इलाहाबाद के एल्फ़्रेड पार्क में अपने साथी सुखदेवराज के साथ बैठे बात कर रहे थे कि सामने की सड़क पर एक मोटर आकर रुकी, जिसमें से एक अंग्रेज़ अफ़सर नॉट बावर और दो सिपाही सफ़ेद कपड़ों में नीचे उतरे।
सुखदेवराज लिखते हैं, 'मोटर खड़ी होते ही हम लोगों का माथा ठनका। गोरा अफ़सर हाथ में पिस्तौल लिए सीधा हमारी तरफ़ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से अंग्रेज़ी में पूछा, 'तुम लोग कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?' आजाद का हाथ अपनी पिस्तौल पर था और मेरा अपनी। हमने उसके सवाल का जवाब गोली चलाकर दिया..! मगर गोरे अफ़सर की पिस्तौल पहले चली और उसकी गोली आज़ाद की जाँघ में लगी, वहीं आज़ाद की गोली गोरे अफ़सर के कंधे में लगी। दोनों तरफ़ से दनादन गोलियाँ चल रही थीं। अफ़सर ने पीछे दौड़कर मौलश्री के पेड़ की आड़ ली। उसके सिपाही कूद कर नाले में जा छिपे। इधर हम लोगों ने जामुन के पेड़ को आड़ बनाया। एक क्षण के लिए लड़ाई रुक सी गई। तभी आज़ाद ने मुझसे कहा मेरी जाँघ में गोली लग गई है। तुम यहाँ से निकल जाओ.'

सुखदेवराज आगे लिखते हैं, 'आज़ाद के आदेश पर मैंने निकल भागने का रास्ता देखा. बाईं ओर एक समर हाउस था। पेड़ की ओट से निकलकर मैं समर हाउस की तरफ़ दौड़ा। मेरे ऊपर कई गोलियाँ चलाई गईं, लेकिन मुझे एक भी गोली नहीं लगी। जब मैं एल्फ़्रेड पार्क के बीचों-बीच सड़क पर आया तो मैंने देखा कि एक लड़का साइकिल पर जा रहा है। मैंने उसे पिस्तौल दिखाकर उसकी साइकिल छीन ली। वहाँ से मैं साइकिल पर घूमते-घूमते चाँद प्रेस पर पहुँचा। चाँद के संपादक रामरख सिंह सहगल हमारे समर्थकों में से थे। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं हाज़िरी रजिस्टर पर फ़ौरन दस्तख़त करूँ और अपनी सीट पर बैठ जाऊँ.'

डिप्टी एसपी ठाकुर विश्ववेश्वर सिंह और पुलिस अधीक्षक सर जॉन नॉट बावर ने पूरे पार्क को घेर लिया था।
बावर ने पेड़ की आड़ लेकर चंद्रशेखर आज़ाद पर गोली चलाई जो उनकी जांघ को चीरकर निकल गई। दूसरी गोली विश्ववेश्वर सिंह ने चलाई, जो उनकी दाहिनी बांह में लगी। घायल होने के बाद आज़ाद लगातार बाएं हाथ से गोली चलाते रहे। आज़ाद ने जवाबी हमले में जो गोली चलाई वह विश्ववेश्वर सिंह के जबड़े में लगी।

उस समय में उत्तर प्रदेश के आईजी रहे हॉलिंस ने 'मेन ओनली' पत्रिका के अक्तूबर, 1958 के अंक में लिखा था, "आज़ाद की पहली ही गोली नॉट बावर के कंधे में लगी थी। पुलिस इंस्पेक्टर विशेश्वर सिंह आज़ाद पर गोली चलाने के फेर में एक पेड़ के पीछे छिपे हुए थे।"

"तब तक आज़ाद को दो या तीन गोलियाँ लग चुकी थीं लेकिन तब भी उन्होंने विशेश्वर के सिर का निशाना लगाया और वो गोली निशाने पर लगी। उस गोली ने विशेश्वर का जबड़ा तोड़ दिया। ये आज़ाद के जीवन की आखिरी लेकिन सबसे बड़ी लड़ाई थी ! "

हॉलिंस आगे लिखते हैं, "आज़ाद इतने अच्छे निशानेबाज़ थे कि उनकी चलाई हुई हर गोली सामने के पेड़ पर एक आदमी की औसत ऊँचाई की दूरी पर लगी थी। दूसरी तरफ़ नॉट बावर और विशेश्वर सिंह की गोलियाँ 10-12 फ़ीट की ऊँचाई पर लगी थीं। मैंने आज़ाद से अच्छा निशानेबाज़ अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। "

इससे प्रतीत होता था कि आज़ाद का अंतिम समय तक मानसिक संतुलन कितना ठीक था जब कि पुलिस वाले अंधाधुँध गोलियाँ चला रहे थे ।

आज़ाद के मरने के बाद भी नॉट बावर की हिम्मत नहीं हुई कि वो उनके पास जाएं। उसने अपने एक सिपाही को आदेश दिया कि ये देखने के लिए कि आज़ाद जीवित तो नहीं हैं, उनके पैरों पर फ़ायर करो। उसी समय भटुकनाथ अग्रवाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी के छात्र थे और हिन्दू छात्रावास में रहते थे। बाद में उन्होंने लिखा कि 27 फ़रवरी की सुबह जब वो हिन्दू बोर्डिंग हाउस के गेट पर पहुँचे तो उन्हें गोली चलने की आवाज़ सुनाई दी। तब तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र अल्फ़्रेड पार्क के आसपास इकट्ठा होने शुरू हो गए थे।

दो मजिस्ट्रेटों ख़ास साहब रहमान बख़्श और ठाकुर महेंद्रपाल सिंह के सामने चंद्रशेखर आज़ाद के पार्थिव शरीर का निरीक्षण किया गया।
आठ लोगों ने उनके पार्थिव शरीर को उठाकर एक गाड़ी में रखा। लेफ़्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड और उनके दो साथियों डॉक्टर गेड और डॉक्टर राधेमोहन लाल ने आज़ाद के शव का पोस्टमॉर्टम किया।

आज़ाद के दाहिने पैर के निचले हिस्से में दो गोलियों के घाव थे। गोलियों से उनकी टीबिया बोन भी फ़्रैक्चर हुई थी। एक गोली दाहिनी जाँघ से निकाली गई। एक गोली सिर के दाहिनी ओर पेरिएटल बोन को छेदती हुई दिमाग में जा घुसी थी और दूसरी गोली दाहिने कंधे को छेदती हुई दाहिने फ़ेफड़े पर जा रुकी थी।

विश्वनाथ वैशम्पायन लिखते हैं, 'आज़ाद का शव चूँकि भारी था, इसलिए उसे स्ट्रेचर पर नहीं रखा जा सका। चंद्रशेखर आज़ाद चूँकि ब्राह्मण थे, इसलिए पुलिस लाइन से ब्राह्मण रंगरूट बुलवाकर उन्हीं से शव उठवाकर लॉरी में रखा गया था।"

पार्क में मेरे मित्र ने इस तस्वीर को खींचा था

अल्फ़्रेड पार्क में जिस पेड़ के पीछे आज़ाद की मृत्यु हुई थी, आम लोगों ने कई जगह आज़ाद लिख दिया था।
वहाँ की मिट्टी भी लोग उठा कर ले गए थे. उस स्थान पर रोज़ लोगों की भीड़ लगने लगी. लोग वहाँ फूल मालाएं चढ़ाने और दीपक जलाकर आरती करने लगे।

इसलिए एक दिन अंग्रेज़ों ने रातों-रात उस पेड़ को जड़ से काट कर उसका नामोनिशान मिटा दिया और ज़मीन बराबर कर दी थी. काटे हुए पेड़ को एक सैनिक लॉरी में लाद कर दूसरे स्थान पर फेंक दिया गया.

अक्तूबर, 1939 में उसी जगह पर बाबा राघवदास ने एक और जामुन के पेड़ को लगाया। जो आज भी वहां मौजूद है।

चंद्रशेखर आज़ाद  हमेशा आजाद रहे । ब्रिटिश राज कभी इन्हें गुलाम नहीं रख पाई जबतक जीवित रहे।
उन्होंने खुद को सर में गोली मारी थी और अपनी मृत्यु के माध्यम से उन्होंने   "कभी भी जीवित नहीं पकड़े जाने का अपना संकल्प सुनिश्चित किया। अंतिम समय तक आज़ाद (स्वतंत्र) रहे।"
 
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, 
आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे....!"

Saturday, March 15, 2025

सुख का सोता

जिन अथाह सागर जैसी आंखों में आप सर्वस्व निझावर कर डूब जाना चाहते थे जब उन्ही आंखों में आंसुओं की गंगा-जमुना उमड़ते देखते हो जिसे वो अपने चेहरे की बेरंग हंसी से छुपा देना चाहती है तब आपको आभास होता है कि अक्सर मेरी खुशियों का उद्गम बनने वाली तुम्हारे इन दो प्रेमिल नैनों से दुखों का सोता भी फूट सकता है। आप चाहते हैं उसी क्षण इस सृष्टि का विधान बदल डालें और उसे इस दुःख के बोझ से उबार दें किंतु नियति के सामने आप मजबूर, आप पूरा मन लगा अंदर के उत्साह से एक चुटकुला या कोई किस्सा याद दिलाते हैं जिससे उसकी बेरंग मुस्कान की रंगत कुछ बढ़ जाए।

इस पूरी प्रक्रिया को करते हुए आपको एक बार पुनः वही एहसास होता है जिसने आपको इस लड़की की प्रेमपाश में बांधा था और इस तरह पहले से ज़्यादा आप उससे बेसाख्ता प्रेम करने लगते हैं।

~ अंशुमन "निर्मोहिया"

Sunday, February 9, 2025

बस यूंही लिख दिया

इतराना उसका खूबसूरती पर
न जाने कैसा अहंकार है.....?
काम वासना डूबी
उसे किससे प्यार है...?
ये सौंदर्य जीवन 
ईश्वर की देन है
कुछ क्षणों तक रहेगा
प्रकृति का नियम है 
इसके आगे सब मौन है..!
एक दिन तुम यू बैठोगी
आंगन में सोचोगी
मेरे बारे में
धुंधली सी यादों में 
मैं मासूम नजर आऊंगा
हा वो लड़का जो 
बिना स्वार्थ के
तुमसे मिलता था
तब पछताकर क्या होगा
हाथ से सब निकल चुका होगा
एक नया संसार होगा 
जिसमे न चाहते हुए जीना होगा
घुटकर जीवन जीने से क्या होगा
आज जवानी है कल बुढ़ापा होगा
आज जीवन है कल मृत्यु होगा
इस चक्रव्यूह से निकलो तुम
अर्जुन की तलाश में
कृष्ण को न भूलो तुम..!

Wednesday, July 31, 2024

लिख दिया प्रयाग के राग को...!

अब तो कई महीने हो जाते हैं कुछ लिखे भी.. क्या लिखूं डर सा लगता हैं लिखने जाता हु तो भूल जाता हूं आगे क्या लिखूं? लिखना मुश्किल हो जाता है कभी कभी न चाहते हुए लिखना छोड़ना पड़ता है। आज तो कई दिनों बाद मैं लिख रहा हूं.. प्रयास रहेगा रोज लिखूं... जीवन में बहुत कुछ खोया हु और बहुत कुछ पाया भी हूं पिछले कई सालों में... प्रेम हुआ पर मिला नहीं, पढ़ा लिखा मगर कलेक्टर बना नही... सोच रहा हु लिखता ही रहूं क्या पता लेखक ही बन जाऊं..! प्रयागराज रहने के बाद चला जीवन क्या है? संघर्ष करना पड़ता है जीवन में कुछ पाने के लिए.. संगम किनारे बैठकर सोचने से भी कुछ नहीं होता है लहरों में डुबकी लगाना पड़ता है.. जॉर्ज टाउन की कॉफी शाम को पीने के बाद  , रात में नींद नहीं आती पढ़ते रहो रात भर.. वैसे इश्क कर लो किसी लड़की से ,वो भी रात भर सोने नही देती है... सुबह की नींद खुलने के बाद लक्ष्मी चौराहे की चाय की चुस्की और चेहरे की मुस्की क्या ही कहना... कभी कभी दिल किया तो त्रिपाठी चौराहे पर चले जाना जहा शाम को सचिव साहब से लेकर बीबीसी पत्रकार तक दिख जाते हैं... दोस्तो के पास बाइक है तो सिविल लाइन बस बस अड्डे के पास "बन मस्का और चाय" की दुकान वाह क्या ही कहना.... कटरा और यूनिवर्सिटी चौराहे पर शाम की भीड़ लगता है मानो मेला लगा हो बहुत बड़ा...लेकिन आशिकों को मजा तो लल्ला चुंगी पर आता है जिसे पिया मिलन चौराहा तक नाम दे दिया गया... खैर साहित्यकारों की बैठकी होती थी एक जमाने में.... बहुत कुछ बदल गया है इलाहाबाद में...! 
लोकनाथ के समोसे हो या चौफटका के पास प्रयाग से बढ़िया कहीं समोसे मिले तो कोई बताए... सीएमपी कॉलेज के पास जूस का ठेला लगाने वाला कहता मिल गया की हम भी इसी कॉलेज से पढ़े है साहब.. हमने कहा वाह.... ! गए हम प्रयाग थे इश्क हमें जौनपुर से हो गया .. दिल है दिल बहक गया या पिघल गया वो मिले या ना मिले फिर कभी लेकिन बेनीराम इमरती वाले का पता मिल गया .. इससे बढ़िया कोई इमरती तो पूरे भारत में कोई नही बनाता होगा.... इसके आगे तो देहाती रसगुल्ला भी कुछ भी नही है... नेतराम कचौड़ी वाले को तो भूल ही गया वर्ल्ड फेमस तो ई हो है लेकिन पुराना इलाहाबादी कहता है मत जहिया एकरे ईहा गद्दार हैं सब मुखबिरी किया रहा आजाद का.... आजाद से याद आया साइंस फैकल्टी से होते हुए मुस्लिम हॉस्टल वाला रास्ता पकड़कर आजाद पार्क पहुंच जाना ... क्या कहना लगता है सारे दृश्य सामने आ गए हो .. रुह कांप जाती है और मन उदास सा हो जाता है  .. आजाद पार्क की मनहुसियत गजब है कभी न खत्म होने वाली जो महसूस करते है वो समझते है...! वैसे तो पूरे प्रयागराज में चौड़ी सड़कें है ... यूनिवर्सिटी में पढ़ने लिखने वाले बहुत है लेकिन अब पहले जैसा माहौल कहा ... वो रंगत नहीं है एक मुर्दा शहर बनकर रह गया है जहा लोग अपने अरमानों और सपनो को जिंदा करने आते है ... पूरा पूर्वांचल बसा है यू ही नही "ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईस्ट" नाम मिला है ... अच्छा अब दारा गंज स्टेशन के मच्छर बहुत बेचैन काटने को ... निकलता हु यहां से...😅

Monday, January 29, 2024

प्रेम का प्यासा

हुआ इश्क मुझे तुमसे 
न जाने ये कैसी बेचैनी है
मिलो तुम हमसे एक रोज
मुरझाया हुआ हु जैसे एक सरोज
बिन जल के मरुस्थल में
भटक गया हु राह
तुम्हारी चाह में 
मृगतृष्णा में खोया हु
आओ तोड़ो भ्रम को
प्रेम की बूंदों से
 ..............


Wednesday, December 27, 2023

क्या आईएसआई वाले ही है अज्ञात हमलावर ?

कौन है जो लोगों को ठोक रहा है शत्रु देश में घुसकर शत्रुओ को..? "अज्ञात हमलावर" खबरों में,चर्चे में ,अखबार की सुर्खियों में बना हुआ हैं। चुन चुन के ठोके जा रहे है सब अपने ही घर में । किसी को जहर देकर मार दिया जा रहा है तो किसी ऑन द स्पॉट गोली मारकर काम तमाम हो रहा है
किसी को चलती गाड़ी से भेड़ बकरियों की तरह उठा लिया जा रहा बाद में 72 हूरो के पास पहुंचा दिया जा रहा हैं। इसमें कोई सक नही हैं की जितने भी एनआईए के हिट लिस्ट में है धीरे धीरे सब मारे जा रहे है सबके मारे जाने की स्थिति एक सी हैं।

सवाल तो बहुत से उठते है साहब क्या ये काम भारतीय खुफिया एजेंसियों का है? क्या ये रॉ की साजिश है? मैं कहता हू अगर रॉ की साजिश है तो एक्सपोज करके दिखाए पाकिस्तान और पाकिस्तानी सेना। कहा गई इनकी दुनिया की टॉप की खुफिया एजेंसी आईएसआई जो इनके सामने से इनके आकाओं को ठोककर चले जा रहे है ये "अज्ञात हमलावर"। बाकी हवा तो बनता ही रहेगा की सब रॉ की साजिश है क्योंकि मारे जाने वाले सब भारत में हुए आतंकी हमलों के मास्टरमाइंड और साजिशकर्ता रहे है। पाकिस्तान में तो जनाब बच्चा भी रोने लग जाय तो सब कहते है " रॉ की साजिश है " ये तो हालात हैं इस मुल्क के।

बात करते है न्यूक्लियर पॉवर होने की पीछे से कोई अज्ञात घात करके चला जा रहा है। इन्हे कानों कान खबर नही लग रही है जिसे लग रही है उसके माथे में लग रही गोली...! मेरे ख्याल से ये भी हो सकता है कि अज्ञात हमलावर दो चार को ठोके होंगे उसका फायदा लेकर पाकिस्तानी फौज सबको टपकाने में लगी हुई है की मारो इन जाहिलो को हमें अब इनका काम नही है। ये पड़े पड़े राशन उठा रहे है और गले की फांस बने हुए है। वैसे भी काम निकलने के बाद ये कच्छे और मोजे बेचने वाली फौज किसी को नही पहचानती है। इनके यहां इतनी अंधेरगर्दी मची हुई है की इनके नेता अब देश की फौज को ही भर भर की गालियां देते हैं। सुनने में तो ये भी आता है कि आईएसआई वाले कार से निकलते थे दिन दहाड़े उनको उठा लेते थे जो इनके खिलाफ किसी भी तरह की आवाज उठाए हो या इनसे बगावत की बू आ रही हो। ये भी मानना गलत नही होगा कि जितने ठोके गए है उन्हे यही लोग ठोके हो "अज्ञात हमलावर" के नाम पर। कहानी साफ सुथरा है कि इन्हे जरूरत है इस समय पैसों की जो इन्हे कही से मिलते हुए नजर नही आ रहे है कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा इन्हे पाने के लिए..!

हा कुछ लोगो का यह भी मानना हैं की FATF का दबाव हो सकता है। पाकिस्‍तान ने FATF को भरोसा दिया था कि वह अपनी जमीन पर आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करेगा। इतना ही नही जो मारे गए, उन्‍हें न तो पाकिस्तान सरकार ने, न ही मीडिया ने आतंकवादी के रूप में पहचाना है।

अब जो हो किसी के मानने या न मानने से क्या ही फर्क पड़ता है। रही बात भारतीय खुफिया विभाग की तो इन सबसे दस कदम आगे चल रही है । हो सकता है इनके यहां कुछ अधिकारी हो जिनका विवाद चल रहा हो वहा के हुकूमत से जिनका भरपूर इस्तेमाल हमारी खुफिया विभाग कर रही हो।

मन में तरह तरह के सवाल उठना लाजमी है। इतना रहस्यमयी ढंग से कौन ठोक सकता है किसी को वो भी उनके गढ़ में घुसकर , ना कोई चेहरा ना कोई रूप क्या फर्क पड़ता है उसे छाव हो या धूप ,दिन हो या रात, अपना काम करके निकल जाता है "अज्ञात"...!


Tuesday, November 21, 2023

मैच जिताने में ऑलराउंडर की बड़ी भूमिका होती है

अभी अभी विश्वकप खत्म हुआ हैं। लोगो की भावनाएं आहत हुई है। करीब 20 साल बाद भारत और आस्ट्रेलिया आमने सामने थे फाइनल में इस बार टॉस जीतकर बॉलिंग की ऑस्ट्रेलिया ने पिछली भारत ने की थी जैसे लेकिन कोई फर्क नही पड़ा नतीजा वही निकला 6 विकेट से ऑस्ट्रेलिया ने मैच को जीत लिया। रोहित शर्मा ने जो शॉट खेला था उसके लिए वो जब तक जीवित रहेंगे तब तक खुद को गालियां ही देंगे... कैसे यार मुझे रुकना चाहिए था.... एक दम से 1983 में जैसे सर विवियन रिचर्ड्स ने खेला था और कपिल देव ने कैच पकड़ा था उसी तरह से रोहित शर्मा ने खेला और हेड ने कैच पकड़कर खेल पलट दिया। बात यही नही खतम नही होती है हमने एक ऑलराउंडर खेलाना जरूरी नहीं समझा, सूर्या को खेलाना बेकार ही फैसला था वो बॉलिंग भी नही करा सकता है.. हार्दिक पांड्या का घायल को बाहर होना खल गया लेकिन इतने बड़े देश क्या कोई ऑलराउंडर नहीं मिला बीसीसीआई को.. हद है अश्विन को बाहर बैठा कर रखा फाइनल में शार्दुल भी नही खेला चलो ठीक है कम से कम यार प्रसिद्ध कृष्णा को तो खेला सकते थे। पार्ट टाइमर कोई नहीं था भारत में जिसका डोमेस्टिक में बॉलिंग रिकॉर्ड बढ़िया हो और अच्छा खासा ओवर निकाल ले।

2007 का T20 ,2011 हो या 2013 का चैंपियन ट्रॉफी हम तभी जीते जब खिलाड़ी बदलते गए पिच के हिसाब से विनिंग कांबिनेशन जैसा कुछ नही होता है। Constant कुछ भी नही होता है... सचिन सहवाग तक बॉलिंग करके ओवर निकाल लेते थे जब टीम जरूरत पड़ती थी तो। युवराज रैना जैसे ऑलराउंडर अब नही दिखते है टीम। भले ही फास्ट बॉलिंग ऑलराउंडर नही थे लेकिन टीम संतुलित थी इन स्पिन फेंकने वालो से। शर्म की बात है की टीम में कोई ऑलराउंडर नही है अगर जडेजा को आप बल्लेबाज मानते है तो आप आईपीएल ही देखिए वही सही है आपके लिए... Individual records बनाने में सब लगे ही थे और बनने भी चाहिए.. लेकिन दबाव में खेलने वाला गंभीर बड़ा याद आया यार...इस विश्वकप में ऑस्ट्रेलिया की टीम आप देख सकते है ऑलराउंडरों और पार्ट टाइम गेंदबाजों की कमी नही थी। मानते है हमने 10 दस मैच लगातार जीते लेकिन सामने 5 बार की चैंपियन थी जो कभी हार नही मानती है अफगानिस्तान के खिलाफ मैक्सवेल के दोहरे शतक बता दिया था की हम हारने वालो में से नही है। कहते है न सब अच्छा हो रहा तो गलत चीजे दिखनी बंद हो जाती है लोगो को वही हुआ है आलोचना किसी को पसंद नही आजकल वैसे भी आलोचना करने वालो का रिकॉर्ड चेक करने लग जाते है आजकल के तथाकथित प्रसंशक लोग। बिना ऑलराउंडर के खेलेंगे तो खामियाजा भुगतना ही था एक न एक दिन ।

2011 भारत विश्वकप टीम में धोनी और गंभीर को छोड़ सारे खिलाड़ी लगभग ठीक ठाक गेंदबाजी कर लेते थे।
1996 की श्रीलंका की विश्वकप टीम में महानामा और कालुविथर्ना को छोड़ सब गेंदबाजी कर सकते थे।
87 की विश्वकप ऑस्ट्रेलिया टीम में 8-9 गेंदबाजी कर सकने वाले लोग थे। ये विश्वकप भारत में हुए थे।

 एक बात और विव रिचर्ड्स महान थे और रहेंगे जब दुनियाभर के बड़े क्रिकेटर 60 की स्ट्राइक से वनडे खेलते थे और उसे बेस्ट कहते थे तब विव रिचर्ड्स की 90+ स्ट्राइक थी इतना ही नही तेज गेंदबाज भी थे फिल्डिंग में तो लाजवाब एक दम 3d खिलाड़ी बिना हेलमेट के उस समय के तेज गेंदबाजो को पानी पिला देते थे... महानता ये नही की आपने अपने करियर में क्या किया.. आपने विश्व कप जितवाया की नही अपनी टीम को इसमें में है..।

Friday, November 17, 2023

लहरा दो तिरंगा इस बार कर्णावती के मैदान पर


साल था २००३ , मेरी उम्र थी ११ , तब घर में हिंदुस्तान का समाचारपत्र आया करता था, जिस दिन फाइनल मुक़ाबला था उसी दिन समाचारपत्र में मुख पन्ने पर शीर्षक आया था “ २० साल बाद भारत फिर से इतिहास दोहराने को आमादा”। महा मुक़ाबले वाले दिन टीवी पर पाकिस्तान के साथ हुए मुक़ाबले का पुनः प्रसारण हुआ, देख कर आनंद भी आया और हौसला भी। ख़ैर मुक़ाबला शुरू हुआ ऑस्ट्रेलिया के साथ और उन्होंने कैसा खेल दिखाया ये बताने की ज़रूरत भी नहीं है। बल्लेबाज़ ही कर के ऑस्ट्रेलिया ने अपनी तरफ़ ८०% मैच झुका लिया था, हमारी आख़िरी उम्मीद अब सचिन पर टिकी थी।

सचिन के एक चौका मारते ही हमारी उम्मीदें परवान पर थी, अगले ही क्षण कुछ ऐसा हुआ कि किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, सचिन आउट हो गये। हमारी उम्मीद टूट गई थी, पर सहवाग को खेलते देख कर मन के अंदर का बच्चा अभी भी हार मानने को तैयार नहीं था। सहवाग- द्रविड़ दोनों आउट हो गये। हम मुक़ाबला हार गये, बहुत रोया , खाना तक नहीं खाया।ग़ज़ब की टीस थी मन ही मन में। कुछ भी अच्छा नहीं लगा कुछ दिनों तक उसके बाद।अगले दिन फिर से हिंदुस्तान समाचार पत्र घर आया और उसके मुख पत्र पर शीर्षक था “आह !! एक सुंदर सपना टूट गया"
आज फिर से उसके बीस साल बाद वही दोनों टीमें फिर से फाइनल में पहुँची हैं, एक क्षण लगता है कि ऑस्ट्रेलिया कही वहीं दर्द फिर से ना दे दे, तो दूसरे क्षण लगता है कि नहीं जो हो गया वो पुरानी बात थी, ये नयी पीढ़ी इस बार ऑस्ट्रेलिया को दर्द देगी और हम तीसरी बार चैंपियन बनेंगे।
पूरी टीम को मेरे जैसे असंख्य प्रशंशकों को तरफ़ से शुभकामनाएँ हैं। हमारी टीम जीते यही कामना है। इस बार चूकना नहीं है, बल्कि साबित करना है कि हम तब भी सर्वश्रेष्ठ थे आज भी है, सिर्फ़ एक दिन के ख़राब खेलने की वजह से हारे थे पर अब वो गलती नहीं होगी।

अपने टीम के हर खिलाड़ी हमारे अपने हैं, हम सबके फैन हैं, हमे सभी पर गर्व है। जाओ और लहरा दो तिरंगा इस बार कर्णावती के मैदान पर। 

जय हिन्द 
जय भारत🇮🇳
🐼🏏

लेखक:- सतीश यादव 

Saturday, November 4, 2023

400 रन बनाने के बाद भी हारी न्यूजीलैंड और टूटे कई रिकॉर्ड

आज पकिस्तान बनाम न्यूजीलैंड का गजब मैच चला। जहां न्यूजीलैंड ने पहली बार वनडे क्रिकेट के इतिहास पहली बार 400 का आंकड़ा छुआ वही पाकिस्तान जीत गई डकवर्थ लुइस नियम से 21 रनों से.. एक पल को ख्याली पुलाव लग रहा था लेकिन ये सब कुदरत का निजाम निकला इसके आगे कोई क्या ही कर सकता हैं। इतिहास तो दोनो तरफ से बने आज देखा जाय तो। रचिन रविन्द्र ने एक एक ही विश्व कप 3 शतक जड़ दिए विश्वकप में न्यूज़ीलैंड की तरफ से सबसे ज्यादा शतक जड़ने के मामले में आगे निकल गए।इस मामले में उन्होंने कप्तान केन विलियमसन (2) को पीछे छोड़ दिया है।विलियमसन यदि शतक से नहीं चूकते तो वह संयुक्त रूप से सर्वाधिक शतक जड़ने वाले पहले बल्लेबाज होते। विलियमसन के अलावा फ्लेमिंग, मार्टिन गप्टिल, स्टायरिस, ग्लेन टर्नर और नाथन एस्टल ने 2-2 शतक जड़े थे।

रचिन रवीन्द्र 23 साल की उम्र में 3 विश्वकप शतक जड़ने वाले पहले बल्लेबाज बन गए हैं। इससे पहले पूर्व भारतीय दिग्गज सचिन तेंदुलकर के नाम 23 साल की उम्र में 2 विश्व  कप शतक दर्ज थे, लेकिन अब रचिन रवीन्द्र ने सचिन तेंदुलकर को पीछे छोड़ दिया है..! रविंद्र एक बड़ा कारनामा करते हुए डेब्यू वनडे विश्व कप में 500 रन बनाने वाले दूसरे बल्लेबाज बन गए हैं। इस मामले में उन्होंने इंग्लैंड के विस्फोटक बल्लेबाज जॉनी बेयरस्टो (534 रन, 2019) की बराबरी हासिल कर ली है। रविंद्र एक वनडे विश्व कप संस्करण में न्यूजीलैंड की ओर से संयुक्त रूप से इस मामले में उन्होंने अपने देश के पूर्व दिग्गज क्रिकेटर मार्टिन क्रो (1992) और स्कॉट स्टाइरिस (2007) की बराबरी करते हुए सबसे अधिक 50+ की पारियां खेलने वाले बल्लेबाज बन गए हैं..!
पाकिस्तान के फखर जमां ने न्यूजीलैंड के खिलाफ लगाते 11 छक्के लगाते हुए एक पारी में ज्यादा छक्को का और सबसे तेज शतक लगाते ही इमरान नजीर का 16 साल पुराना रिकॉर्ड रिकॉर्ड तोड़ दिया जो 2007 में किंग्सटन में विश्व कप मैच में जिम्बाब्वे के खिलाफ इमरान नजीर ने 95 गेंदों में शतक जड़ा था,और 8 छक्के लगाए थे जबकि फखर ने 63 गेंदों में 100 रन बनाए । देखा जाय तो शायद ये पहली बार ऐसा हुआ है की कोई टीम पहली बार 400+ रन बनाती है और उसे बारिश की वजह से डकवर्थ लुईस नियम से हारना पड़े...!
इस विश्व कप में कुछ भी हो जा रहा है नीदरलैंड ने दक्षिण अफ्रीका को हरा दिया और अफगानिस्तान ने इंग्लैंड- पाकिस्तान दोनो को। न्यूज़ीलैंड की टीम अपने शुरू के चार मैच जीती है और लगातार हार भी गई..!  रचिन रविंद्र तीन शतको में न्यूज़ीलैंड को 2 में हार मिली है .. अभी तो ये इनका पहला ही विश्वकप है आने वाले समय में इनके और शतक देखने को मिलेंगे।

🏏🐼

Sunday, October 29, 2023

धर्म संकल्प

मेरा गिरना भी झरने की तरह होगा 
बादल की तरह उठना होगा 
झरने में गिरना प्यास बुझाना मुझे नही आता
मैं खड़ा पर्वत के नीचे झरना मेरे ऊपर गिरेगा
झरने से गिर नदी बनकर बह सकता हू
लेकिन उसमे डुबकी नहीं लगाऊंगा
किनारे से भी प्यास नहीं बुझाऊंगा
मैं जो हू शेषनाग सा हूं 
कालिया मत समझना
भगवान का शैय्या हूं
ताता थैया का स्थान नही
जब तक सांस रोके हूं 
सागर की लहरे शांत है
शस्यश्यामलांचला की विकलता
मेरे भीतर क्रोध की ज्वाला
भड़क उठी तो क्या विस्मय 
बोलो भारत माता की जय।।
 
©शिवम




Saturday, October 7, 2023

इस तांडव की अग्नि में सब जलकर भस्म हो जाएंगे

फिल्मों और मीडिया वालो को पैसे देकर अपने बारे में जो नैरेटिव फैलाए या बनाए है कई सालो से दुनियां के कुछ तथाकथित उच्च स्तर के खुफिया विभाग वाले उसी को लोग सच मान बैठें है। देखा जाय तो इनके असफल ऑपरेशन को भी फिल्मों में एक सफल ऑपरेशन बताकर उसपर पर्दा डालने की कोशिश की गई है। मीडिया में बढ़ा चढ़ा कर ऐसे प्रस्तुत किया जाता है की दुनिया के किसी भी कोने में कोई व्यक्ति पेड़ के पीछे खड़ा होकर चाट पकौड़ी खा रहा हो या मूत रहा हो, ये सब देख लेते है।खासकर भारत में ऐसे सुनी सुनाई कहानियों को लोग हवा देने लग जाते है, ये मिथक जोर शोर से कथक करता हुआ नजर आता भी है। अरे ये दुनिया के सबसे ताकतवर लोगो में से एक है इनसे कोई नहीं उलझ सकता है, ये अदृश्य है...! चीजे इससे भी ज्यादा पेचीदा है वास्तव में देखा जाय तो।

हमारे देश में देखा जाय कुछ भी बड़ा हमला हो जाय कही तो लोग इंटेलिजेंस फेलियर बोलना शुरु कर देते है की साहब खूफिया एजेंसियां सो रही है। अपने देश के इंटेलिजेंस पर सवाल खड़ा करने वाले उन तथाकथित उच्च स्तर की एजेंसियों से तुलना करने लग जाते है बिना कुछ जाने और समझे।
जबकि हमारी खुफिया एजेंसियों की जानकारी एकदम सटीक रहती हैं। ना कोई दिखावा रहता है ना कोई प्रदर्शन। परदे के पीछे रहकर वो अपना काम बखूबी निभाते है ,बात ये ही रहती है उसपर अमल कितना किया जा रहा है? बहुत बारी देखा गया है की जब इनकी रिपोर्ट को सरकारों द्वारा न मानने पर देश को खामियाजा भुगतना पड़ा है। चीन की नाक के नीचे रक्तविहीन तख्तापलट कर सिक्किम का भारत के राज्य के तौर पर विलय करवाने का काम हो या उससे पहले पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश की स्थापना करना हो ये सब बिना एक मजबूत खुफिया विभाग के संभव नही था। दुश्मन देश की सेना में शामिल होकर उनसे सलामी ठोकवाना हमारे ही देश के खुफिया विभाग वाले कर सकते है। किसी को कानों कान खबर नहीं लगती है , बात साफ है हम जो चाहते है , दिखाते है सिर्फ़ उतना ही दुनिया भर के लोग देख और समझ पाते है। 

अब कुछ बोलेंगे की इतनी ही खुफिया विभाग मजबूत थी तो देश के प्रधामंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कैसे हो गई?
तो बात बता दू जो सुनने में आता है एक दम साफ तरीके से की इन्हे आगाह किया गया था की सुरक्षा कर्मियों को बदल ले ,इन्हे सुझाव दिया गया था जिसको इन्होंने ने नही माना फिर वही हुआ जिसका डर था..! जिन्होंने हत्या की कौन जानता था की राष्ट्र की सुरक्षा का शपथ लेने वाले राष्ट्र अध्यक्ष के लिए भक्षक बन जाएंगे। जान बचाने वाले जानी दुश्मन बन साबित होंगे लेकिन हमारे खुफिया /सुरक्षा एजेंसियों को भनक लग गई थी अब इनकी रिपोर्ट को नही माने कोई तो इसमें इनका क्या फेलियर? यही हाल पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी का था वो रैली में गए थे जहां जाने से मना किया गया था उन्हे खुफिया विभाग वालो द्वारा लेकिन नही माने और कल के अखबार में एक दुखद समाचार छप गया था।सब चीज से खिलवाड़ कर लेना चाहिए लेकिन इंटेलिजेंस रिपोर्ट से बिलकुल भी नहीं।सुनने में तो ये भी आता है कारगिल के समय में भी इनके रिपोर्ट को दरकिनार किया गया था।तब सरकार शांति समझौता करने में व्यस्थ थी। नतीजा क्या हुआ सबने देखा ये कोई बताने वाली बात नही है।

 2014 के बाद से जब से देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जी को बनाया गया है तब से आप देख सकते है की हमारा खुफिया विभाग कितना बेहतरीन कार्य रहा हैं। कश्मीर में आतंकवाद से लेकर पुरे देश में फैले नक्सलवाद का कमर टूट चुका है। खुफिया विभाग मजूबती के साथ सक्रिय क्या हुई देश विरोधी ताकते अपने आप निष्क्रिय गई। वरना पशुपति से तिरुपति तिरुपति तक खून खराबा होता था और लाल आतंक जाल फैला हुआ था। बात वही है न फैसले लेने की मजूबत राजनीतिक इच्छाशक्ति जिसका समर्थन पाकर खुफिया विभाग वालो ने आतंकवाद की कब्र खोद के रख दी है। पहले इनकी रिपोर्ट पर कारवाई उतनी नही होती थी जितना की अब हो रहा हैं। जैसे इंदिरा जी के समय एक्शन लिया जाता था बिलकुल वैसे ही कार्य सुचारू रूप से चल रहा है। पठानकोट एयर बेस पर हमला हो , उड़ी हो या पुलवामा हमला इन सभी इस्लामिक जिहादी हमलों का मुहतोड़ जवाब दिया गया है शुरु में लोग यहां भी इंटेलिजेंस फेलियर बोलते थे लेकिन गुरु सब जानते है चूक कहा हुई थी.. 370 हटने के बाद जो कुटाई हुई है आतंकियों की वो देखने लायक है..! कई महीनों से कश्मीर एक दम शांत है कुछ घटनाओं को छोड़ दे तो। परेशान तो भारत के खुफिया एजेंसियों की हिटलिस्ट में शामिल आतंकी है जिन्हे कोई अज्ञात आकर ठिकाने लगा दे रहा है। कनाडा हो या पाकिस्तान इन अज्ञातो को घंटा फर्क पड़ता है उनका काम है ठोकना ठोक रहे है।

लश्कर के जिहादी हो या खालिस्तानी सबके स्थान विशेष में गोलियां ठोककर ये अज्ञात गायब हो जा रहे हैं। आतंकी सरगना Let हाफिज सईद के लौंडे को उठाकर चलती कार में अगले दिन ठोक दिए सब बाकी सब तो रॉ की साजिश है पाकियों की भाषा में ,पिछले साल कंधार हाईजैक में शामिल आतंकी ठोक गया था। एक तरह से देखा जाय तो वध हो रहा है वध वो भी चुन चुनकर हो रहा है अज्ञात लोगो द्वारा कभी दो पहिया वाहन तो कभी कार से। अमेरिका में सुना हु ये एक्सीडेंट होता है देश विरोधियों का..! बात वही है हमारे यहां हमले करके आनंद लेने वालो को ये नहीं पता की जब हम मुस्कुराते है तो तांडव होता है। इस तांडव की अग्नि में सब जलकर भस्म हो जाएंगे।ना जाने कौन है ये अज्ञात जो कर रहे है आतंकियों पर घात, उतार रहे है मौत के घाट नही वध कर रहे है वध। अदृश्य ताकतों को सलाम पर्दे के पीछे रहकर करते शत्रुओं का काम तमाम।

 बाकी धर्मो रक्षति रक्षितः🔥

Friday, October 6, 2023

कौवो का पूजनीय होना

 ये कर्कश स्वर सुनने को आतुर हो जाते लोग
श्राद्ध पक्ष में निष्ठुर से करुण स्वर हो जाता है
 "कांव कांव"
कौवो का घूमना गांव गांव 
फिर विलुप्त हो जाना एक पल को,
जैसे पल में धूप पल में छांव
पुत्र खोजता है नंगे पांव,
की जूठार दो भोजन चढ़ावा
पूर्वजों का पेट भर जाए
तृप्त हो जाय आत्मा
आशीर्वाद दे परमात्मा..!

जिसकी हरदम होती रही अवहलेना
कौंवो का श्राद्ध पक्ष में पूजनीय होना
दर्शाता है उचित समय और स्थिति 
आने पर सबका होता है सम्मान 
ना समय से पहले कुछ मिला न बाद।।

Sunday, October 1, 2023

जब परते खुलती है तो तरह तरह के शर्तो का पता चलता है।

1937 से लेकर 1948 गांधी जी को पांच बार नोबेल शांति पुरस्कारों के लिए नामित किया गया पर एक बार भी उन्हें इस पुरस्कार के लिए नहीं चुना गया। खुद नोबेल फाउंडेशन अपनी इस चूक को एक ऐतिहासिक गलती मानता है।पता नही कैसी गलती थी जो विंस्टल चर्चिल जैसे रक्त पिपासु को भी नोबेल दिलवा दी थी। मुझे शुरू से ही लगता है सम्मान पर गिद्ध बैठे हुए हैं जिसको चाहेंगे उसी को मिलेगा आप अपनी छवि सुधारने में अपना चरित्र बदल लेते है। हद है चाचा नेहरू ने सेना रखने से मना कर दिया था विटो तक नहीं लिया शांति के श्वेत कबूतर उड़ाने के लिए पर इन्हे भी कहा मिला विश्व का ये तथाकथित सम्मान। सबसे ख़ास बात क्या की दो बार दो व्यक्तियों को मरणोपरांत पुरस्कार दिया गया है। पहली बार एरिएक्सेल कार्फल्डट को 1931 में और दूसरी बार संयुक्त राष्ट्र के महासचिव डैग डैमरसोल्ड को 1961 में दिया गया था। 1974 में नियम बना दिया गया कि मरणोपरांत किसी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाएगा।

1906 में जब शांति का नोबेल युद्धवीर अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट को दिया गया तो इसके पतन का रास्ता का ऐसा खुला की आज तक बंद नहीं हुआ। 2012 में यूरोपियन संघ तक को मिल गया था जिसकी विभिन्न प्रकार के सैन्य अभियानों में संलिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता है।
बात वही है न जो सम्मान हेनरी किसिंजर, यासर अरफात और बोगिन जैसों दिया जा सकता है , तो गांधी जी और नेहरू को क्यों नही दिया गया? 
वैसे आप नोबेल की पृष्ठभूमि देख लीजिए तो इसके पीछे स्व प्रेरणा से उत्पन्न मानव या विश्व कल्याण का भाव नहीं था। डायनामाइट के आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल के जीवन में ही 1888 में गलती से एक अखबार ने मृत्यु का समाचार छाप दिया, "मौत के सौदागर की मृत्यु।" इसी सोच से उसने अपने धन के एक हिस्से का ट्रस्ट बनाकर वसीयत में घोषित किया कि उसके ब्याज की रकम से कल्याणकारी कार्य करने वालों को सम्मानित किया जाए। नोबेल स्वयं औद्योगिक पूंजीवाद की उपज था, इसलिए उसकी दृष्टि वहीं तक जाती थी।

बाकी हमारे देश में ही विदेशी सम्मान की चाटुकारिता जारी रही। अहिंसा परमो धर्म वाली बकलोलियां धरी की धरी रह गई सबकी। शांति का नोबेल छोड़िए क्या साहित्य में मुंशी प्रेमचंद नहीं थे? बहुत से ऐसे लोग थे जिनके आगे ये तथाकथित सम्मान का कोई अस्तित्व नही है।आज लोग दो कौड़ी का मैगसेसे पा जाते है तो उनका हल्ला हु मच जाता है मतलब क्या ही बोला जाय? तथाकथित सम्मानों से आंकलन शुरू हो जाता है व्यक्ति विशेष का... जब परते खुलती है तो तरह तरह के शर्तो का पता चलता है। बाकी मैं उजड़ा हु इतिहास एक एक पन्ना उजड़ा है