Wednesday, July 31, 2024

लिख दिया प्रयाग के राग को...!

अब तो कई महीने हो जाते हैं कुछ लिखे भी.. क्या लिखूं डर सा लगता हैं लिखने जाता हु तो भूल जाता हूं आगे क्या लिखूं? लिखना मुश्किल हो जाता है कभी कभी न चाहते हुए लिखना छोड़ना पड़ता है। आज तो कई दिनों बाद मैं लिख रहा हूं.. प्रयास रहेगा रोज लिखूं... जीवन में बहुत कुछ खोया हु और बहुत कुछ पाया भी हूं पिछले कई सालों में... प्रेम हुआ पर मिला नहीं, पढ़ा लिखा मगर कलेक्टर बना नही... सोच रहा हु लिखता ही रहूं क्या पता लेखक ही बन जाऊं..! प्रयागराज रहने के बाद चला जीवन क्या है? संघर्ष करना पड़ता है जीवन में कुछ पाने के लिए.. संगम किनारे बैठकर सोचने से भी कुछ नहीं होता है लहरों में डुबकी लगाना पड़ता है.. जॉर्ज टाउन की कॉफी शाम को पीने के बाद  , रात में नींद नहीं आती पढ़ते रहो रात भर.. वैसे इश्क कर लो किसी लड़की से ,वो भी रात भर सोने नही देती है... सुबह की नींद खुलने के बाद लक्ष्मी चौराहे की चाय की चुस्की और चेहरे की मुस्की क्या ही कहना... कभी कभी दिल किया तो त्रिपाठी चौराहे पर चले जाना जहा शाम को सचिव साहब से लेकर बीबीसी पत्रकार तक दिख जाते हैं... दोस्तो के पास बाइक है तो सिविल लाइन बस बस अड्डे के पास "बन मस्का और चाय" की दुकान वाह क्या ही कहना.... कटरा और यूनिवर्सिटी चौराहे पर शाम की भीड़ लगता है मानो मेला लगा हो बहुत बड़ा...लेकिन आशिकों को मजा तो लल्ला चुंगी पर आता है जिसे पिया मिलन चौराहा तक नाम दे दिया गया... खैर साहित्यकारों की बैठकी होती थी एक जमाने में.... बहुत कुछ बदल गया है इलाहाबाद में...! 
लोकनाथ के समोसे हो या चौफटका के पास प्रयाग से बढ़िया कहीं समोसे मिले तो कोई बताए... सीएमपी कॉलेज के पास जूस का ठेला लगाने वाला कहता मिल गया की हम भी इसी कॉलेज से पढ़े है साहब.. हमने कहा वाह.... ! गए हम प्रयाग थे इश्क हमें जौनपुर से हो गया .. दिल है दिल बहक गया या पिघल गया वो मिले या ना मिले फिर कभी लेकिन बेनीराम इमरती वाले का पता मिल गया .. इससे बढ़िया कोई इमरती तो पूरे भारत में कोई नही बनाता होगा.... इसके आगे तो देहाती रसगुल्ला भी कुछ भी नही है... नेतराम कचौड़ी वाले को तो भूल ही गया वर्ल्ड फेमस तो ई हो है लेकिन पुराना इलाहाबादी कहता है मत जहिया एकरे ईहा गद्दार हैं सब मुखबिरी किया रहा आजाद का.... आजाद से याद आया साइंस फैकल्टी से होते हुए मुस्लिम हॉस्टल वाला रास्ता पकड़कर आजाद पार्क पहुंच जाना ... क्या कहना लगता है सारे दृश्य सामने आ गए हो .. रुह कांप जाती है और मन उदास सा हो जाता है  .. आजाद पार्क की मनहुसियत गजब है कभी न खत्म होने वाली जो महसूस करते है वो समझते है...! वैसे तो पूरे प्रयागराज में चौड़ी सड़कें है ... यूनिवर्सिटी में पढ़ने लिखने वाले बहुत है लेकिन अब पहले जैसा माहौल कहा ... वो रंगत नहीं है एक मुर्दा शहर बनकर रह गया है जहा लोग अपने अरमानों और सपनो को जिंदा करने आते है ... पूरा पूर्वांचल बसा है यू ही नही "ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईस्ट" नाम मिला है ... अच्छा अब दारा गंज स्टेशन के मच्छर बहुत बेचैन काटने को ... निकलता हु यहां से...😅

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