जब मैं बरबस पंचगंगा घाट के समीप पहुंचा तो वहां स्थित मंगला गौरी मंदिर के महात्म्य से मैं परिचित था और दर्शनाभिलाषी बन मैं सीढ़ियां चढ़ता हुआ मंदिर पहुंचा, जब वहां से निकल रहा था तो मुझे उसके सामने दिखा बालाजी मंदिर, न जाने क्यूं मुझे एहसास हुआ कि शायद मैंने इस जगह के बारे में कहीं पढ़ रखा है। तभी मुझे इस ऊहापोह में उलझा देख वहां एक फूल बेचती हुई माई ने कहा "का हुआ बबुआ, का ताके जा रहे हो?", मैं वैसे भी अपने ख्यालों में खोए रहने के लिए कुख्यात हूं इसलिए मैं उन प्रश्नों का उत्तर देने को शब्द तलाश ही रहा था कि वो समझ गई कि मैं इस मंदिर में बारे में जिज्ञासु हूं। मेरे अनकहे प्रश्नों को हल करते हुए उन्होंने कहा कि अरे जाओ ये बड़ा ही दिव्य मंदिर है यहीं उस्ताद बिस्मिल्लाह खान रियाज़ किया करते थे।
माई के ऐसा कहते ही मुझे अचानक से अहसास हुआ कि काफी समय पहले उस्ताद के बारे में पढ़ते हुए मैंने इस मंदिर का नाम सुना था। जैसे ही मैंने मंदिर के अहाते पर प्रवेश किया तब एक अपने अंतस में एक शान्ति का अनुभव किया, मंदिर के चौखट में बाहर उसका इतिहास लिखा था जो बता रहा कि यह मंदिर ग्वालियर के सिंधिया घराने के संरक्षण में है, जब मैं अंदर घुसा को सामने शेषशायी भगवान विष्णु की सुंदर मूर्ति थी, दर्शन के पश्चात जब मैं वहां की खिड़की से एकटक सदानीरा मां गंगा को ताक रहा था और तभी मैंने वहां बैठे पुजारी जी से पूछा कि यहां सच में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां रियाज़ करते थे ?
मेरे इस प्रश्न पर पहले उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे निहारा और ऐसे देखा मानों मैने कुछ अलग ही पूछ लिया था, फिर मेरी जिज्ञासा को शांत करने के उद्देश्य से उन्होंने कहा कि "बाबू, यहां पहले उस्ताद जी के मामा रियाज किया करते थे समय के साथ जब यह बात प्रत्यक्ष हो गई कि इस कला की बरकत उनके भांजे को भी प्राप्त है तब उन्होंने उस्ताद साहब को भी इस मंदिर में रियाज करने की अनुमति दे दी लेकिन साथ ही साथ ही अच्छे चेतावनी विधि की अगर तुम कुछ भी अद्भुत या अलौकिक देखोगे तब इसके बारे में किसी को नहीं बताना।"
कहानी को पढ़ते हुए पुजारी जी ने कहा कि "तो इसी तरह उस्ताद साहब यहां रियाज़ करते और कला की बारीकियां सीखते थे। एक दिन जब वो अभ्यास में तल्लीन थे और इन रागों की जटिलताओं को साध रहे थे तब यकायक उन्होंने जब आँखें खोली तब पाया कि स्वयं जगतनियंता-जगदाधार श्रीहरि विष्णु बैठे थे और रस लेकर उस्ताद साहब की धुनों को सुन रहे थे। उन्हें देखते ही उस्ताद साहब हतप्रभ से भागे-भागे अपने मामा के पास पहुंचे और सारा कच्चा-चिट्ठा सुना डाला। यह सुनकर उनके मामा झल्लाए और कहा कि तुम्हें मुझे उनके बारे में नहीं बताना था, अब वह नहीं आयेंगे।"
मेरा मन ये चाहता था कि मैं इस कहानी को झुठला दूं लेकिन यह मंदिर और यहां की शांति का आभास कर मैं अपने पूरे तर्क के साथ भी इसे मिथ्या सिद्ध नहीं कर पा रहा था। बनारस का वैभव्य, यहां की पुरातन सनातन संस्कृति मुझे यह विश्वास हो रहा था कि इस पूरे विश्व में अगर कहीं यह संभव है तो वो केवल यहीं है। वापस होटल पहुंचकर मैं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां जी के रागों में डूब गया और कहीं न कहीं उनके रागों से बनारस को समझने का असंभाव्य प्रयास कर रहा था।
लेखक: अंशुमान "निर्मोहिया"
Wonderful
ReplyDeleteधन्यवाद अविनाश भाई ❤️
Delete