2 अक्टूबर को जो महात्मा गांधी का जन्मदिवस था, उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड के निवासियों द्वारा दिल्ली में आयोजित रैली में शामिल होने के लिए जाते हुए लोगों पर उत्तर प्रदेश की बंदूकधारी पुलिस (पी.ए.सी.) ने गोलियां चलाई और लाठियां मारीं। पुलिस ने जोरदार हमला किया, औरतों को मारापीटा और उन की बेइज्जती की। कितने लोग मरे, कितनी स्त्रियों का बलात्कार हुआ, इस की पुष्टि अभी तक नहीं हुई है. यह सब इसलिए हुआ कि मुलायम सिंह की सरकार ने आदेश दिया कि इन लोगों को किसी हालत में दिल्ली नहीं जाने दिया जाए। अफवाह यह फैलाई गई कि इन लोगों के पास आधुनिक हथियार हैं जिन का उपयोग ये लोग दिल्ली में करेंगे, पर पुलिस आज तक एक भी हथियार नहीं बरामद कर पाई।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमिटी ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर के नरसिंह राव सरकार से मांग की कि वह मुलायम सिंह सरकार को बरखास्त कर दे। पर नरसिंह राव न 'हां' करते हैं, न 'ना' करते हैं। उन की चाल हमेशा यही रहती है कि बस जो हो रहा है चलने दो, समस्याएं अपनेआप अपना हल निकाल लेती हैं।
नरसिंह राव ने अपने इर्दगिर्द के लोगों में से उन सभी को नाकारा कर दिया है जो उन की गद्दी को चुनौती दे सकें। इसलिए वह सोचते हैं कि किसी जोखिमभरे कदम को उठाने की तकलीफ ही क्यों की जाए।
वैसे जहां केंद्र द्वारा किसी राज्य सरकार को बरखास्त करने का हथियार आसानी से इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। वहीं वर्तमान केंद्रीय कांग्रेस नेताओं को यह कानूनी और नैतिक अधिकार तो है ही कि वे मुलायम सिंह सरकार को अपना समर्थन न देने का फैसला कर सकते हैं।
इस समय दोनों पक्षों को जोरदार चुनौतियां दी जा रही हैं। मुलायम सिंह कहते हैं चुनाव कराने हैं तो कराओ। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं बहुमत में आऊंगा। उधर कांग्रेसी खम ठोंक कर कहते हैं हम 222 सीटों पर कब्जा करेंगे-चुनाव तत्काल होने चाहिए ।
पर जैसा कि ऊपर कहा गया है, नरसिंह राव यह सोच रहे हैं कि मुलायम सिंह को अभी गद्दीविहीन नहीं किया जाए। जितने दिन वह मुख्यमंत्री बने रहेंगे, उतनी ही ज्यादा गलतियां करेंगे और जन आक्रोश उतना ही बढ़ेगा।काफी हद तक यह सोच ठीक भी लगती है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति चारों ओर से घिर जाता है तो बह गलतियां ज्यादा करता है।
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उत्तराखंड आंदोलन के सिलसिले में उत्तर प्रदेश के कुछ समाचारपत्रों में काफी विस्तृत विवरण छापा जो मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को पसंद नहीं आया। फलस्वरूप उन्होंने दो समाचारपत्रों-जागरण व अमर उजाला के विरुद्ध 'हल्ला बोल' दिया है। इन पत्रों की प्रतियां जलाई गई। हाकरों को मारापीटा गया। कार्यालयों पर धावा बोला गया।
जहां तक मुलायम सिंह का अपने अनुयायियों से यह कहना कि वे ये पत्र पढ़ना बंद कर दें, कुछ हद तक माना जा सकता है. पर मारपीट, कार्यालयों पर धावा, प्रतियां जलाना यह जनतंत्र के विरुद्ध है-प्रेस की स्वतंत्रता तो जनतंत्र का आधार है। यह बात नहीं है कि कोई समाचारपत्र गलती नहीं कर सकता। पर उस पर धावा बोलना जनतंत्र का अपमान है। अगर कोई समाचारपत्र गलत बात कहता है तो उस पर मुकदमा चलाइए उस के कार्यालय को जलाने का प्रयत्न आप के अधिकार में नहीं है-न यह कानूनी है न नैतिक। और अंत में यह उलटा असर भी पैदा करता है-जन-साधारण की सहानुभूति इन पत्रों के साथ हो जाती है और इन की प्रचार संख्या बढ़ जाती है।
( प्रस्तुत लेख सरिता पत्रिका के संपादकीय नवंबर प्रथम 1994 में प्रकाशित हुआथा। वर्तमान की कुछ घटनाओं को देखते हुए इसे ब्लॉग पर छापना जरूरी लगा)
जो घटना 2 अक्टूबर को हुई, वो सच में लोकतंत्र के मुंह पर तमाचा है। जिस दिन गांधी जी जैसे अहिंसा के प्रतीक का जन्मदिवस हो, उसी दिन निर्दोषों पर गोलियां चलें, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार हो, ये बेहद शर्मनाक है। सरकार अगर आंदोलन रोकना चाहती थी, तो बात करके भी रास्ता निकाल सकती थी। लेकिन ऐसा लगा जैसे सत्ता का घमंड ही सब कुछ कुचल देना चाहता हो। प्रेस की आज़ादी पर हमला भी उतना ही डरावना है। अख़बार जलाना, दफ्तरों पर हमला, ये तानाशाही के संकेत हैं।
ReplyDeleteजी हां बिल्कुल सही कहा आपने। मुलायम सिंह यादव को उत्तराखंड वाले और सच्चे रामभक्त कभी नहीं क्षमा कर सकते हैं। वर्तमान में देखिए इनका पुत्र पत्रकारों की जाति पूछता रहता है...😐
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