1906 में जब शांति का नोबेल युद्धवीर अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट को दिया गया तो इसके पतन का रास्ता का ऐसा खुला की आज तक बंद नहीं हुआ। 2012 में यूरोपियन संघ तक को मिल गया था जिसकी विभिन्न प्रकार के सैन्य अभियानों में संलिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता है।
बात वही है न जो सम्मान हेनरी किसिंजर, यासर अरफात और बोगिन जैसों दिया जा सकता है , तो गांधी जी और नेहरू को क्यों नही दिया गया?
वैसे आप नोबेल की पृष्ठभूमि देख लीजिए तो इसके पीछे स्व प्रेरणा से उत्पन्न मानव या विश्व कल्याण का भाव नहीं था। डायनामाइट के आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल के जीवन में ही 1888 में गलती से एक अखबार ने मृत्यु का समाचार छाप दिया, "मौत के सौदागर की मृत्यु।" इसी सोच से उसने अपने धन के एक हिस्से का ट्रस्ट बनाकर वसीयत में घोषित किया कि उसके ब्याज की रकम से कल्याणकारी कार्य करने वालों को सम्मानित किया जाए। नोबेल स्वयं औद्योगिक पूंजीवाद की उपज था, इसलिए उसकी दृष्टि वहीं तक जाती थी।
बाकी हमारे देश में ही विदेशी सम्मान की चाटुकारिता जारी रही। अहिंसा परमो धर्म वाली बकलोलियां धरी की धरी रह गई सबकी। शांति का नोबेल छोड़िए क्या साहित्य में मुंशी प्रेमचंद नहीं थे? बहुत से ऐसे लोग थे जिनके आगे ये तथाकथित सम्मान का कोई अस्तित्व नही है।आज लोग दो कौड़ी का मैगसेसे पा जाते है तो उनका हल्ला हु मच जाता है मतलब क्या ही बोला जाय? तथाकथित सम्मानों से आंकलन शुरू हो जाता है व्यक्ति विशेष का... जब परते खुलती है तो तरह तरह के शर्तो का पता चलता है। बाकी मैं उजड़ा हु इतिहास एक एक पन्ना उजड़ा है
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