सेक्युलरिज्म शब्द का प्रयोग सबसे पहले जब बर्मिंघम के जॉर्ज जेकब हॉलीयाक ने सन् 1846 के दौरान अनुभवों द्वारा मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने के तौर तरीक़ों को दर्शाने के लिए किया था तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि आने वाले समय में ये शब्द इतना विकृत हो जायेगा कि अपनी मूल भावना को छोड़कर मनुष्यों के जीवन को बेहतर बनाने की जगह उसे और बद से बद्तर बनाने में सर्वोच्च भूमिका निभायेगा।
जॉर्ज जेकब हॉलीयाक के अनुसार, “आस्तिकता-नास्तिकता और धर्म ग्रंथों में उलझे बगैर मनुष्य मात्र के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, बौद्धिक स्वभाव को उच्चतम संभावित बिंदु तक विकसित करने के लिए प्रतिपादित ज्ञान और सेवा ही धर्मनिरपेक्षता है”।
साधारण शब्दों में कहें तो धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलरिज्म धार्मिक संस्थानों व धार्मिक उच्चपदधारियों से सरकारी संस्थानों व राज्य का प्रतिनिधित्व करने हेतु शासनादेशित लोगों के पृथक्करण का सिद्धान्त है।
किंतु बदलते राजनीतिक परिदृश्य, वोट बैंक की बढ़ती चाहत, सत्तालोभी नेताओं एवं कुछ बिके हुए ज़मीर वाले उच्चपदासीन लोगों के कारण धर्मनिरपेक्षता का अर्थ एक वर्ग विशेष या यूं कहें कि मज़हब विशेष के लिए विशेषाधिकार का प्रावधान करना हो गया है जहां उस मज़हब का किसी भी तार्किक रूप में भी विरोध मात्र करना ही आपको कम्युनल बना देता है एवं उस मज़हब विशेष का समर्थन करना, उसको विशेषाधिकार देना या विशेषाधिकारों की पैरवी करना उच्च श्रेणी का सेक्युलर।
और ये विश्वभर में अपनी इतनी गहरी पैठ बना चुका है कि इसका विरोध करने मात्र से ही आपके लिए "सर तन से जुदा" के नारे लगाती विवेकहीन मजहबी उन्माद में अंधी जोम्बी आर्मी रक्त पिपासु होकर भटकने लगती है।
स्थिति इस हद तक है कि चाहे विश्वभर के आतंकी संगठन उसी मज़हब से प्रेरित हों, उसी की किताब को अपना आदर्श बताते हों, आतंकी संगठनों के सरगना उसी मज़हब के हों और अनेकों आतंकियों ने खुलेआम या फिर कहीं पकड़े जाने पर इस बात को कबूला भी हो फिर भी बड़ी ही बेहयाई से हर छोटे-बड़े स्तर पर हर देश धर्म पार्टी कुनबा जाति का हर छोटा-बड़ा नेता या आज की मॉडर्न जेनरेशन की भाषा में कहें तो इंफ्लूएंसर सीना चौड़ा करके ये कहता पाया जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता।
भारत जैसे देश में तो ये तब और भी घातक हो जाता है जब इस विक्षिप्तता को अलग-अलग लोग नाना प्रकार से उचित ठहराने की कोशिश करते दिखते हैं।
इन लोगों ने मजहबी जिहाद को आतंकवाद नाम देकर उसको भी सेक्युलर बना दिया है और इस कथित सेक्युलर आतंकवाद की आड़ में धर्म देखकर होती हत्याओं को खूब जस्टिफाई किया जाता रहा है।
कभी किसी समान मज़हब वाले के संपार्श्विक क्षति (Collateral damage) का उदाहरण दिया जाता है तो कभी हमलावरों को ग़रीब पिछड़ा और सताया हुआ बताकर मामले को इमोशनल एंगल दे जनता का ध्यान मूल हमले से हटाकर सहानुभूति की तरफ करने का प्रयास किया जाता है।
कभी किसी को मानसिक विक्षिप्त बताया जाता है तो कभी जब कोई और रास्ता नहीं मिलता तो वही घिसे पिटे एकाध उदारहरण के द्वारा ये बताया जाता है कि एक आदमी से पूरे मज़हब पर सवाल नहीं किया जा सकता, ऐसा करने वाले दंगा भड़काना चाहते हैं, कम्युनल हैं।
और मज़े की बात ये है कि ये सारे हथकंडे अपनाते समय किसी को मृतकों की परवाह नहीं होती है, सिर्फ फ्लैट फेस के साथ एक लाइन में फेक माफीनामा पढ़कर सब संतुष्ट हो जाते हैं।
और हां ये तो लिखना ही भूल गया कि चाहे मारने वाला आंतकी सेक्युलर हो पर मरनेवाला मृतक हमेशा कम्युनल होता है जिसके स्वधर्मियों की उग्र और भड़काऊ भाषण से राहुल देव होकर उस सताये हुए ग़रीब सेक्युलर आतंकी ने उस निर्दोष कम्युनल को मारने का फैसला लिया होता है।
हालांकि एक बार अजमल आमिर कसाब को कलावा बांध के इस सेक्युलर आतंकवाद को कम्युनल बनाने की कोशिश की गई थी लेकिन अमर जवान तुकाराम ओंबले ने उसको जीवित पकड़ आतंकवाद को कम्युनल होने से बचा लिया था।
ताजातरीन मामला पहलगाम में हुआ सेक्युलर अटैक है (हालांकि इसको ताजा भी नहीं कह सकते क्योंकि मैं लिखने में थोड़ा लेट हो गया) जहां कुछ मासूम सेक्युलर आतंकियों ने 26 लोगों, जिनमें एक सेक्युलर था और 25 कम्युनल, को धर्म पूछकर, पैंट खोलकर कम्युनलिज्म की पुष्टि करके गोली मार दी। एक सेक्युलर को क्यों मारा ये तो वहीं जानें। हो सकता है उसको कलमा पढ़ना ना आता हो इसलिए कम्युनलिज्म की इस गेहूं में सेक्युलरिज्म का वो जौ पिसा गया होगा।
घटना के बाद आनन-फानन में हमारी सरकार एक्टिव हुई और इसको आतंकी घटना घोषित किया गया क्योंकि आप जानते हैं आतंकवाद सेक्युलर होता है, ऐसे में इसको मजहबी हमला बताया जाता तो शायद सरकार का कुछ (20-25) वोटर नाराज़ हो जाता।
फिर इसके बाद एक्टिव हुए इस सेक्युलर आतंकवाद के सेक्युलर प्रवक्ताओं ने चीख-चीखकर बताना शुरु किया कि वो जो एक सेक्युलर मरा है महज़ उसकी वजह से ही ये हत्याएं धर्म से परे होकर की गई हैं इसको धर्म से जोड़कर ना देखा जाये। पक्ष-विपक्ष और तथाकथित बड़े-बड़े लोगों ने एक स्वर में श्रृगालों की तरह इसकी धुन निकालनी शुरु की और कम्युनल समाज को ये मानना ही पड़ा कि हां ये सब सही कह रहे हैं।
जैसा कि अंदेशा था देशभर में इसकी कड़ी निन्दा हुई, कुछेक कम्युनलों ने तो भर्त्सना तक कर डाली, सोशल मीडिया के धुरंधर कम्युनल तो गाली-गलौज पर उतर आए थे।
कुछ दिनों तक ये दौर चला फिर लगभग दो हफ्ते के बाद सरकार ने जनता के भारी दबाव में आकर प्रत्युत्तर में कुछ आतंकवादी ठिकानों पर हवाई हमला किया और इसको नाम दिया "ऑपरेशन सिंदूर"।
तब सेक्युलर प्रवक्ताओं ने इसकी भर्त्सना की कि ये नाम तो कम्युनल है और धर्म देखकर रखा गया है। नाम किस आधार पर और किसने रखा ये तो नहीं पता पर ये सच है कि सरकार की सोच इसको भुनाकर कम्युनलों का वोट लेने की ही थी किंतु इतनी होशियारी से कि सरकार के सेक्युलर वोटर नाराज़ ना हो जायें। अतः इस ऑपरेशन की मीडिया ब्रीफिंग के लिए एक सेक्युलर को चुना गया ताकि सबका साथ बना रहे।
फिर विदेशी मुल्क के प्रत्युत्तर के साथ थोड़े दिनों तक मिसाइल वार होती रही और अंततः युद्धविराम की घोषणा हुई जो कि होनी ही थी और उसमें कुछ ग़लत नहीं था।
फिर शुरु हुआ इसके प्रचार प्रसार का सिलसिला जिसके लिए पहले तो सरकारी थिंक टैंक ने एक यात्रा निकाली न जाने क्यों और फिर लोगों की शादियों में सिन्दूर दान करने की नई स्कीम। सरकार इस ऑपरेशन को भुनाने में जोर-शोर से लगी थी।
उधर इतने दिनों तक अप्रत्याशित रूप से सरकार के साथ खड़ा रहने वाला विपक्ष नई बकलोली पर उतर आया। कुछ ने पूरे ऑपरेशन को फेल बताया और सरकार को कोसने का नया बहाना ढूंढ लिया और कुछ इंदिरा गांधी को याद करके कोस रहे थे जैसे इंदिरा जी होतीं तो अबतक आधा पाकिस्तान कब्जा कर ली होतीं।
इन सब ढकोसलों के बीच सेक्युलर आतंकवाद के कम्युनल मृतक के शव को अपनी गोद में लिये अश्रुपूरित नेत्रों से अकथनीय वेदना का प्रस्फुटन करती उस निर्दोष विधवा के जीवन की किसी को सुध नहीं जो हाथों में लाल मेंहदी और मांग में दमकता सिंदूर सजाये नवविवाहिता के रुप में अपने नये जीवन की शुरुआत के लिए कुछ समय बिताने, कुछ खुशियां जीने और कुछ यादें संजोने गई थी और वहां से अपने पति के शव पर क्रंदन करती, उजड़ी हुई मांग, रक्तरंजित हथेलियों में धुंधली होती मेंहदी और वीरान सी आंखों में आंसुओं के पीछे एक उम्र भर का दर्द समेटे वापस आई और इस ढकोसले पूर्ण राजनीति की बलिवेदी पर उसका पति बस एक आंकड़ा बनकर रह गया।
वो मासूम कैसे इस निर्लज्ज शूरवीरों से उम्मीद लगाये कि कोई इस सेक्युलर आतंकवाद की हकीकत कहने का हौंसला जुटा पायेगा? कोई खड़े होकर सच को आईना दिखाने की कोशिश करेगा?
शायद कोई नहीं कर पायेगा और ये प्रकिया यूं ही चलती रहेगी लोग अपनी धार्मिक पहचान के कारण मरते रहेंगे पर आतंकवाद हमेशा सेक्युलर ही रहेगा...!
लेखक~ फर्जी इंजीनियर