Friday, June 13, 2025

सुहाग की हत्या पर नवनारीवादियों का वैश्या विलाप



नवविवाहिता स्त्रियों द्वारा लगातार होती पतियों की हत्या की खबरों पर कुछ नये तरीके के अनोखे नारीवादी पनपे हैं जो नारीवाद की आड़ में वैचारिक लीचड़पने का नया अध्याय लिख रहे हैं।
इनके नवनारीवाद के अनुसार सारी ग़लती उस स्त्री के प्रेमी की है और इसके समर्थन में ये अपनी थ्योरी देते फिर रहे हैं कि - "मारने वाला हमेशा पुरुष ही होता है", "पुरुष ही पुरुष को मार रहा है", "औरत की तो ग़लती कम है", "पुरुष नहीं मारता तो वो नहीं मारती"..... इत्यादि। ऐसी विशुद्ध वैचारिक विष्ठा नहीं करनी चाहिए।

कुछ नवनारीवादी लोग माता-पिता की ग़लती भी निकाल रहे हैं किंतु उस हत्यारी पत्नी को सबसे कम दोषी बता रहे हैं। इनके अनुसार सबसे अधिक दोषी वो प्रेमी है जिसने हत्या की, फिर वो माता-पिता जिन्होंने लड़की का जबरन विवाह कराया और फिर भी कहीं अगर पाव भर संभावना बची हो तो उस बेचारी अबला स्त्री को भी दोषी कहा जा सकता है।

अबे अक्ल के अंधों दिमाग अगर किसी दारुबाज नशेड़ी की तरह सूअर के नाले में ना लुढ़का हो तो उसका इस्तेमाल किया करो। चिरकुटबुद्धि नारीवादियों तुम्हें ये पता होना चाहिए कि सबसे अधिक दोषी वही औरत है, उसके बाद माता-पिता और फिर सबसे आखिर में आता है प्रेमी। पहले दोषारोपण के इसी टियर लिस्ट को समझते हैं फिर इनके बुद्धिहीन तर्कों पर आयेंगे।

ऐसी घटनाओं में प्रेमी एक कॉन्ट्रैक्ट किलर जैसा है, आमतौर पर ऐसे किलर्स पैसे या अन्य सुविधाएं लेकर हत्या करते हैं, पर चूंकि ये प्रेमी है तो ये पैसे ना लेकर अन्य सुविधाओं या यूं कहें कि उस लड़की के लालच में हत्या करता है या हत्या में सहयोग करता है, ये सोचकर कि इसके बाद ये मेरी हो जायेगी, इसकी संपत्ति या ससुराल से मिलने वाली संपत्ति भी और दोनों सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करेंगे। उस प्रेमी पर हत्या का मुकदमा चले और फांसी हो लेकिन सबसे अधिक दोषी वो नहीं है।
अब आते हैं माता-पिता पर, लगभग 80% मामलों में माता-पिता को पता होता है कि उनकी बिटिया का अफेयर कहां है और उसके बावजूद वो जबरन कहीं और शादी कर देते हैं। ऐसा करने की उनके पास अपनी वजह होती है और मैं उन तर्कों पर नहीं जाना चाहता कि उन्होंने अपनी जाति बिरादरी हैसियत या बेटी के भविष्य की चिंता इत्यादि की वजह से ऐसा किया या इस सनक में कि बेटी का ढूंढा गया अच्छा रिश्ता भी हम क्यों स्वीकारें। इस बहस का कोई लाभ नहीं है और इसमें दोनों पक्षों के अपने तर्क-वितर्क होंगे जो अपनी अपनी जगह सही होंगे।
किंतु यहां एक सवाल उठता है कि जब उस लड़की को माता-पिता का तय किया रिश्ता मंजूर नहीं था और प्रेमी के साथ ही रहना था तो जो हिम्मत उसने विवाह के पश्चात हत्या करने/कराने में दिखाई वैसी ही हिम्मत विवाह के पूर्व क्यों नहीं दिखाई? माना कि माता-पिता गलत ही कर रहे थे तो तुमने तब उसको क्यों स्वीकार किया और स्वीकार किया तो विवाह के बाद ऐसा कदम क्यों उठाया?

अब आते हैं उस हत्यारी पत्नी पर, ऐसे मामलों में सबसे अधिक दोषी यही होती है। पहले तो माता-पिता द्वारा तय किये गये व्यक्ति से शादी करती है और फिर अपने प्रेमी को हायर करके अपने ही पति की हत्या करती है या हत्या में सहयोग करती है और फिर अपने प्रेमी के संग फरार हो जाती है। 

अब आते हैं नवनारीवादियों के बुद्धिहीन तर्कों पर।
ये जो कहते फिरते हैं कि औरत कत्ल नहीं कर सकती, पुरुष ही पुरुष की हत्या करते हैं, वहीं औरत की सहायता करते हैं।
अबे चमगादड़ों वो खबरें नहीं पढ़ते क्या जिसमें औरत सोते हुए पति को काट डालती है या धोखे से जहर देकर मार देती है, उसमें तो पुरुष पुरुष को नहीं मारता, महिला ही मारती है। इसपर क्या कहोगे?
अब पुरुष के मारने पर आते हैं, चलो माना कि मारने वाला पुरुष था तो ये महिलाएं उसके साथ फरार क्यों हो जाती हैं? अपने पति की हत्या की रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाती हैं?
अगर महिला ना चाहे तो किसी प्रेमी की हिम्मत नहीं जो उसके पति को खरोंच भी पहुंचाये।
अतः ऐसे बेवकूफाना तर्क नहीं देने चाहिए।

प्रेमियों से बस नैतिकता के नाते ये उम्मीद की जा सकती है कि जब तुम्हारी प्रेमिका की शादी अन्यत्र हो गई है तो उसको जाने दो, संभव हो तो उसको भी समझाओ कि जो होना था हुआ अब अपने परिवार पे ध्यान दे। या हिम्मत दिखानी है तो प्रेमिका के संग मिलकर शादी से पहले हिम्मत दिखाओ और विवाह कर लो।
या फिर शादी के बाद भी अगर किसी भी वजह से उसको रिश्ता पसंद नहीं तो बोलो कानूनी प्रक्रिया के तहत संबंध विच्छेद करे और फिर दोनों को जो करना हो करो।
किंतु जो हत्या जैसा अपराध करने की मानसिकता रखता हो उससे नैतिकता की उम्मीद करना बेमानी ही होगी।

माता-पिता को चाहिए कि अपने जाति बिरादरी धर्म हैसियत और इज्ज़त की जरूरत से अधिक फ़िक्र करना बंद करें। आज जबरन विवाह कर दे रहे हो और कल को बेटी ऐसा कुकृत्य कर दे रही है तब समाज में मान-सम्मान बढ़ थोड़ी जा रहा है? उल्टे समाज में थू-थू ही हो रही है कि फलाने की बेटी ने ये किया है। इसमें मैं दोषी नहीं बता रहा किंतु आप इसी समाज की इसी इज्ज़त की खातिर अपनी बेटी का प्रेम विवाह अस्वीकार करते हैं और फिर परिणाम में ये मिलता है तो सम्मान रह कहां जाता है? अतः माता-पिता को चाहिए कि सामाजिक ढकोसलों से पहले अपने परिवार की स्थिति और उसकी खुशी को प्राथमिकता दें। समाज ना कभी किसी का हुआ है और ना कभी होगा।
ऐसे मामले भी देखे हैं जहां माता-पिता ने बेटी के प्रेम-विवाह करने पर उससे नाता रिश्ता तोड़ लिया और बुढ़ापे में असहाय हो गये तो समाज किसी काम नहीं आया, तब वही बेटी-दामाद आगे आये और सेवा की। तो सबसे पहले अपने परिवार की खुशियां देखें। ये नहीं कि किसी के भी पल्ले बांध दें पर एक बार बच्चों की बात सुननी तो चाहिए फिर यथासंभव कहीं खुद समझना चाहिए और कहीं बच्चों को समझाना चाहिए।

और लड़कियों को चाहिए कि अपने लिए उचित समय पर आवाज उठायें। विवाह के पश्चात माता-पिता या अन्य किसी को दोषी बताकर पति की हत्या करने से कुछ नहीं मिलेगा। और कितनी भी प्लानिंग कर लो हत्या में पकड़ी ही जाओगी, कोई मान सम्मान कुछ नहीं मिलेगा, एक दिन भी चैन नहीं मिलेगा। अपने प्रेमी को समझें या समझायें, जब माता-पिता ना सुनें तो उनसे बात करके समझाने की कोशिश करें। फिर भी ना हो तो जो हिम्मत विवाह के बाद हत्या में दिखाती हो वो विवाह पूर्व दिखाओ और कर लो अपने प्रेमी से विवाह, या फिर माता-पिता की माननी है तो विवाह बाद सबकुछ भूलकर अपने पति और उसके परिवार पर ध्यान दो। पति या ससुराल से कोई समस्या है तो कानूनन तलाक़ लेकर जिसके संग रहना है रहो किंतु ऐसा कुकृत्य करके नारी के नाम को कलंकित ना करो।

ऐसी हजारों लड़कियां हैं जिनकी शादी उनके प्रेमी से ना होकर पारिवारिक या सामाजिक दबाव में कहीं और कर दी गई और उन्होंने उसको अपनी नियति मानकर सफल वैवाहिक जीवन का निर्वाह किया और कर रही हैं। उन्होंने अपने प्रेमी को भी समझाया कि नियति को यही स्वीकार था अब मेरा परिवार दूसरा है अतः मुझसे किसी संबंध की आशा ना करो और तुम भी अपने जीवन में आगे बढ़ो। कुछ प्रेमियों ने भी ऐसा ही किया। यही परिपक्वता की निशानी है।

कुछ विक्षिप्त प्रेमियों ने कुछ उल्टा-सीधा किया या करने की कोशिश भी की तो ये लड़कियां उनके सामने सिंहनी की तरह खड़ी हो जाती हैं कि मेरे परिवार की तरफ़ आंख उठाकर भी मत देखना वर्ना तुम्हारे सर्वनाश के लिए जो बन पड़ेगा करूंगी। ये होता है कर्तव्य बोध और रिश्तों का सम्मान।

अतः अल्पविकसित नारीवादियों को चाहिए कि फ़ालतू में हर चीज में नारीवाद घुसाकर नारीवाद के अर्थ को इतना संकीर्ण ना बना दें कि लोगों को नारीवाद से घृणा हो जाये।
समाज में अभी भी नारियों के संग अत्याचार हो रहे हैं किंतु ऐसी नारियां और उससे भी अधिक ऐसे नारीवादी सामने आकर घटना को अलग नजरिया दे देते हैं।
समाज को अभी भी नारीवाद की जरुरत है पर ऐसे वाले की नहीं जहां औरत की हर ग़लती उसके औरत होने की वजह से नारीवाद का तिरपाल ओढ़ाकर ढकने की कोशिश की जाये।

Thursday, June 5, 2025

पाकिस्तान की रूप-रेखा

लेखक- श्रीयुत उमाशंकर

[मुसलमान राजनीतिज्ञों की राजनीति भारत को मुस्लिम और हिन्दू-भारत में बाँट  देना चाहती है। इस सम्बन्ध में उनकी तीन स्कीमें अब तक प्रकाश में आ चुकी हैं। लेखक महोदय ने इस रोचक लेख में उन सबका बहुत ही अच्छे ढंग से परिचय दिया है।]

भारत अखण्ड देश है। इसके दो भाग नही हो सकते। जिस तरह शरीर के दो भाग नही किये जा सकते, उसी तरह भारत के दो भाग नहीं किये जा सकते। यह विभक्त हुआ नहीं कि इसके खराब दिन आये। पर देश को बरबाद करने के लिए कुछ सम्प्रदायवादी भारत के दो भाग करने के लिए बहुत जोर लगा रहे हैं। स्कीम पर स्कीम बन रही है।  लाहौर में गत वर्ष मुस्लिम लीग की जो बैठक हुई थी उनमें हैदराबाद (दक्षिण) मिस्टर लतीफ साहब ने पाकिस्तान का खांका खींचा है।

पहले-पहल 'पाकिस्तान' की रूप-रेखा कैम्ब्रिज विश्व-विद्यालय में पढ़नेवाले एक भारतीय मुसलमान युवक ने खीची थी। उसका पाकिस्तान पंजाब, अफ़ग़ानिस्तान, काश्मीर और सिन्ध के प्रथम अक्षरों और बलूचिस्तान के आखिरी 'स्तान' लेकर बना था। अर्थात् पंजाब से 'प' लिया, अफ़ग़ानिस्तान से 'अ', काश्मीर मे 'क', सिन्ध से 'स' और विलोचिस्तान से 'स्तान' लिया । इस तरह 'पाकिस्तान' शब्द बन गया । उसके 'पाकिस्तान' की तह मे यह भाव खेल रहा था कि भारत के मुसलमान भारत के पाकिस्तान से लेकर यूरोप  के तुर्किस्तान तक एक मुस्लिम राज्य क़ायम करें । परन्तु बहुत दिनों तक किसी ने इस स्कीम पर विशेष ध्यान नही दिया । अन्त में, सन् १९३० के मुस्लिम लीग के लखनऊवाले अधिवेशन में उसके सभापति स्वर्गीय सर इक़बाल ने इस योजना का जोरदार शब्दों में समर्थन किया और भारत के मुसलानों से अपील की कि वे पाकिस्तान को अस्तित्व में लाने की चेष्टा करें। फलतः पाकिस्तान  के बनाने  की चेष्टा होने लगी। स्वर्गीय फजले हसेन आदि ने सर इक़बाल के साथ सहयोग किया। मुस्लिम देशों के साथ लिखा- पढ़ी हुई, पर भारत के मुसलमानों ने काफी दिलचस्पी नहीं ली। इसका परिणाम  हुआ कि वह स्कीम खटाई में पड़ गई।

इधर ब्रिटिश सरकार ने संघ-शासन कायम  करने की घोषणा करके प्रान्तों को स्वराज्य दे दिया । देश में नई जागृति का संचार हुआ। पर हमारी कांग्रेस ने उस संघ-योजना का विरोध किया और विरोध मुस्लिम लीग ने भी किया, पर दोनों के विरोध में भिन्नता है । कांग्रेस ने संघ-योजना का विरोध राष्ट्रीय विचार से किया । पर मुस्लिम लीग ने मुस्लिम-संस्कृति की रक्षा तथा भारत में अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखने के लिए विरोध किया।

प्रस्तावित संघ-विधान मे ब्रिटिश भारत के मुसललमानों को ३३ फ़ीसदी जगहें, मिली है, हालाँकि मिलनी चाहिए १२ फ़ीसदी, जगहें, क्योंकि २१ फ़ीसद ही उनकी भारत में आबादी है। इस तरह वे संघ-असेम्बली की २५० जगहो में ८० के हकदार हो गये हैं। पर देशी राज्यों में यह साम्प्रदायिक बँटवारा लागू नहीं है। इसलिए मुसलमान डरते हैं कि उन्हें यहाँ ३३ फ़ीसदी जगहें नही मिल सकती हैं, यही कारण है कि वे संघ योजना का विरोध कर रहे हैं और पृथक् मुस्लिम संघ का स्वप्न देख रहे हैं।

'पृथक्, मुस्लिम संघ' अर्थात् 'पाकिस्तान' क़ायम करने के लिए देश के मुसलमानों में काफ़ी आन्दोलन खड़ा हो -, गया है। पंजाब और दक्षिण-हैदराबाद में उसके, संचालन के लिए आफ़िस तक खुल गये है। ब्रिटिश सरकार के डर से मुसलमानों ने अपने आफ़िसों के नाम 'पृथक् मुस्लिम संघ आन्दोलनकारी सभा' न रखकर कुछ और ही रखें हैं। हैदराबाद में उनकी जो सभा है उसका नाम है 'मुस्लिम कलचर-सोसाइटी' और पंजाबवाली सभा का नाम है 'मुस्लिम ब्रादरहुड' !
हैदराबादवाली सभा के मंत्री वही सैयद अब्दुल लतीफ़ साहब हैं जिन्होंने मुस्लिम लीग के आदेश से 'पृथक् मुस्लिम संघ' की योजना तैयार की है। लतीफ़ साहब का कहना है कि हिन्दुस्तान एक राष्ट्र नहीं है । यहाँ विभिन्न जातियों के लोग बसते हैं, उनमें सांस्कृतिक ऐक्य नहीं है। इस्लाम और वैदिक धर्म में मौलिक भिन्नता है। सामाजिक रूप में भी दोनों दो हैं। ओर देशों में जहाँ इन विषयों का अभाव है, वहाँ एक भाषा ने कुछ हद तक इस समस्या को सुलझा रखा है, पर भारतवर्ष में इसकी भी कमी है। यहाँ समान भाषा भी एक नहीं है। ऐसी परिस्थिति में भारत अखण्ड नहीं रह सकता है। इसलिए इसे दो भागों में बाँटना जरूरी है। ऐसा नहीं होता है तो मुसलमानों को उन ३८ फीसदी हिन्दुओं के हाथ में अपना जान-माल सौंप देना होगा जो हिन्दुस्तान से इस्लाम को मिटा देना चाहते हैं।
इन्ही सारी बातों को दृष्टि में रखकर लतीफ़ साहब ने भारतवर्ष को उसकी संस्कृति और धार्मिकता के आधार पर  पर बांट डाला है। उनकी क़लम ने भारत के १५ टुकड़े कर डाले हैं, जिनमें चार मुसलमानों को दिये गये हैं और बाकी हिन्दुओं को । पहला मुस्लिम मण्डल 'उत्तरी-पश्चिमी मण्डल' है। इसमें पंजाब, सीमाप्रान्त, काश्मीर, खैरपुर, बहावलपुर, सिंध एवं बलूचिस्तान सम्मिलित हैं।
उनकी राय है कि इसके अन्तर्गत जो सीख तथा हिन्दू रियासतें हैं उनको वहाँ से खदेड़कर काश्मीर की पूर्वी सीमा की ओर तथा कांगड़ा के हिन्दू इलाक़े की ओर भेज दिया जाय तथा जम्मू और काश्मीर के महाराज को भी कुछ मुआवजा देकर उनका राज्य मुस्लिम भाग में मिला देना चाहिए। दूसरा मण्डल 'उत्तरी-पूर्वी विभाग' है । इनमें आसाम और बंगाल सम्मिलित हैं। वहाँ के हिन्दुओं को बिहार की ओर चला आना पड़ेगा और बिहारी मुसलमानों को बंगाल और आसाम `की ओर आना पड़ेगा। तीसरे मण्डल का नाम है 'देहली - और लखनऊ विभाग' । इस विभाग में संयुक्त प्रान्त और बिहार के मुसलमानों को स्थान मिलेगा। इस विभाग में जितने हिन्दू-तीर्थस्थान हैं जैसे- मथुरा, हरिद्वार आदि उन पर हिन्दओं का अधिकार रहेगा। वहाँ चाहें तो हिन्दू रह भी सकते हैं। वही उन्हें किसी तरह का कष्ट नही होगा । चौथा विभाग है 'दक्षिणी विभाग।' इसमें हैदराबाद और मद्रास सम्मिलित हैं। इन चारों मण्डलों के अलावा उस स्कीम में यह प्रबन्ध किया गया है कि राजपूताना, गुजरात, मालवा तथा अन्य देशी राज्यों के रहनेवाले मुसलमान वहाँ से अपना बोरिया-बधना समेट कर मुसलमानी देशी राज्यों में आकर रहेंगे और उन देशी राज्यों से हिन्दू निकालकर मालवा, गुजरात और राजपूताना में रखे जायेंगे। इन मण्डलों के घेरे के बाद देश में जो स्थान बचता है, वहाँ हिन्दू रहेंगे । भाग के अनुसार उनका विभाजन होगा । बंगला , हिन्दी, उड़िया, तेलगू, तामिल, मराठी, गुजराती, कनारी, मलयालम आदि भाषाओं के अनुसार हिन्दूमण्डल के कतिपय विभाग होंगे। हरिजनों को इसमें बहुत सुन्दर स्थान लतीफ़ साहब ने दिया है । उन्हें कहा गया है कि वे जहाँ चाहें रह सकते हैं। हिन्दूमण्डल तो उनका मण्डल रहेगा ही, मुस्लिम मण्डल में भी उन्हें उचित स्थान दिया जायगा । इसी प्रकार बौद्धों, ईसाइयों, जैनों और पारसियों को अधिकार दे दिया गया है कि वे जहाँ चाहें रह सकते है। मुस्लिम मण्डल में उनके धर्म, उनकी भाषा, उनके साहित्य तथा उनकी संस्कृति पर किसी तरह का आघात नहीं पड़ेगा । बेचारे आर्यसमाजी कहाँ रहेंगे, इसका इस योजना में कोई जिक्र नहीं है । उपर्युक्त योजना बनी तो मुस्लिम लीग के ही आदेश से, पर अभी तक लीग ने उसे स्वीकार नहीं किया है । हाँ सिंध की प्रान्तीय लीग ने अपने कराची के अधिवेशन में उसे स्वीकार कर लिया है। मुस्लिम लीग ने इस योजना पर विचार करने के लिए एक समिति बनाई है, जिसमें मिस्टर जिन्ना, सर सिकन्दरहयातखां, मिस्टर बन्दुल अजीज, ख्वाजा सर नाजिमुद्दीन, सर अब्दुल्ला हारून , सरदार औरंगजेबखाँ तथा नवाबजादा लियाक़तअलीखाँ हैं । देखना है कि आठ करोड़ मुसलमानों के ये स्वयं बने भाग्य-निर्माता क्या करते हैं ।

लतीफ़ साहब की योजना की आलोचना और प्रत्यालोचना खूब हो रही है। भारत के सभी राष्ट्रीय पत्रों ने उसकी निन्दा की है। कितने ही मुसलमानों ने भी उसकी कड़ी आलोचना की है । उसकी आलोचना करते हुए सिन्ध के एक मुसलमान सज्जन ने लिखा था कि ऐसी हरकतें केवल इस देश के लिए ही खतरनाक नही हैं, वरन मुसलमानो सस्कृति के लिए भो खरम्ब है ! इन मुस्लिम मण्डलों में भी किसी तरह इस्लामी संस्कृति खतरे मे खाली नही रहेगी, क्योंकि वह चारों तरफ़ शत्रुओं से घिरी रहेगी। लीग के अन्दर भी कुछ मुसलमान हैं, जो इस स्कीम की खराबियों को महसुस कर रहे हैं। उनका कहना है कि पश्चिमोत्तर-मण्डल तथा उत्तरी-पूर्वी विभाग हिन्दुओ से घिरे रहेंगे । इसलिए ये दोनों मण्डल अपने को खतरे से बाहर नही समझ सकते हैं। दक्षिण-मण्डल की हालत तो बहुत ही शोचनीय होगी । यह मण्डल अपने को बहुत दिनों तक स्वतंत्र नहीं रख सकेगा। जिस तरह मराठों ने १८वीं सदी में निज़ाम को तंग किया था उसी तरह दक्षिण- मण्डल के मुसलमानों को भी मराठे तंग करेगे । उस समय निजाम को बचा रखने के लिए ईस्टइंडिया कम्पनी ने मदद दी थी। परन्तु आज तो ऐसी कोई भी शक्ति नही,जो उन्हें आफ़त से बचा सकेगी । पश्चिम में देहली-लखनऊ-मण्डल है और पूर्व में बंगाल और आसाम-मण्डल है। इन दोनों मण्डलों को भी खतरे से बाहर नहीं समझना चाहिए । जिस तरह मराठों के कारण दक्षिण- मण्डल खतरे में रहेगा, उसी तरह राजपूताने में राजपूतों, सिखों और गोरखों तथा नेपाल में नेपालियों के रहने के कारण ये मण्डल भी अपनी स्वाधीनता बहुत दिनों तक क़ायम नहीं रख सकेंगे । बंगाल और आसाम-मण्डल भी लड़ाकू बिहारियों तथा खूनी नेपालियों के द्वारा सताये जायेंगे । इन्ही कारणों से वे लतीफ़ साहब की योजना को पसन्द नही करते हैं और उसके विरोध में आवाज उठा रहे हैं तथा अपनी दूसरी योजना पेश कर रहे हैं । कलकत्ता के एक मौलवी साहब ने एक नई योजना पेश की है । मिस्टर लतीफ़ का दक्षिण-मण्डल उनकी समझ में मुसलमानों के लिए लाभदायक नहीं होगा ।

वह अन्य मुस्लिम मण्डलों से दूर रहने के कारण खतरे में रहेगा । इसलिए कलकतिया मौलाना साहब ने यह सोचा है कि बिहार  और संयुक्तप्रान्त के हिन्दुओं को निकालकर सम्पूर्ण उत्तरी भारत में मुसलमान ही रखे जायें । काश्मीर के महाराज को वे निजाम का राज्य दे देने को तैयार हैं। उनकी राय है कि हैदराबाद के निजाम और काश्मीर के महाराज आपस में राज्य-बदलोअल कर लें ! आप भारत के ११ प्रान्तों में ७प्रान्त मुसलमानों के लिए चाहते हैं। वे प्रान्त ये हैं-सिन्ध, सीमान्त, पंजाब, संयुक्तप्रान्त, बिहार , बंगाल और आसाम । इस तरह कलकत्ता से लेकर क्वेटा तक और हिमालय से लेकर विन्ध्याचल तक मौलवी साहब का 'पाकिस्तान' फैला रहेगा !

इस योजना को व्यावहारिक रूप देने पर १२,२०,००,००० हिन्दुओं को सिन्ध, सीमान्त, पंजाब, संयुक्तप्रान्त, बिहार, बंगाल और आसाम छोड़कर मद्रास, बम्बई, मध्यप्रान्त और उड़ीसा के दक्षिणी भाग
में जाना पड़ेगा और उन प्रान्तों से ५७,००,००० मुसलमानों को बुलाकर सिन्ध, सीमान्त, पंजाब, संयुक्त-
प्रान्तं, बिहार, बंगाल और आसाम में आबाद किया जायेगा। पर इस योजना में सबसे बड़ी कठिनता यह है
कि एक तरफ सघन आबादी हो जाती है और दूसरी तरफ विरल । बम्बई, मद्रास, दक्षिण-उड़ीसा और मध्यप्रान्त की आबादी ८ करोड़ ६० लाख है, जिसमें
मुसलमान ५७ लाख के लगभग हैं। अगर ५७ लाख
मनुष्य वहाँ से निकाल दिये जाएँ तो ८ करोड़ ३ लाख
रह जायेंगे । मौलाना साहब चाहते है कि ११ करोड़ २० लाख उत्तरी भारत के हिन्दू दक्षिणी भारत भेज दिये जायें । क्या कोई भी भला आदमी यह अनुमान लगा सकता है कि जिस प्रदेश का क्षेत्रफल ३,३६,४८५ वर्गनील है, वहाँ १९ करोड़ २० लाख आदमी आंट भी सकते हैं ? अगर ऐसा हुआ तो आबादी इतनी घनी हो जायगी कि उस भाग के लोग भूखो मरने लगेंगे । वहाँ तो हर वर्गमील मे ५७१ आदमी रहेंगे और उत्तरी भारत में १३३ आदमी हर वर्गमील मे रहेगे । मौलाना साहब ने केवल मुसलमानों के लाभ के लिए ही यह योजना बनाई है। आपकी योजना से साफ़ पता चलता है कि आपको हिन्दुओं का कुछ भी खयाल नहीं है। कितनी मजेदार बात है कि ११ करोड़ २० लाख हिन्दुओं को खदेड़ कर वह स्थान ५७ लाख मुसलमानों को दे दिया जाय ! बालफ़ोर-कमिटी ने क्या पैलिस्टाइन का विभाजन इसने भी खतरनाक किया है ? फिर भी वही मुसलमान जब स्वयं ऐसा चाहते हैं तंत्र क्यों हल्ला मचा रखा है ? क्या उन्होंने कभी खयाल किया है कि उत्तरी भारत तथा दक्षिणी भारत के लोगों को बोली में बहुत फर्क है ? अभी मद्रास की सरकार ने अपने प्रान्त में हिन्दुस्तानी-भाषा जारी की थी, पर उसका यहाँ विरोध हो रहा है और काफ़ी लोग जेल जा चुके है । हिन्दुओं के जितने तीर्थ-स्थान है, वे प्रायः उत्तरी भारत में ही हैं। हिन्दुओं के लिए गंगा स्वर्ग है। क्या मौलाना साहबा के कहने वे से अपने तीर्थतुल्य वासस्थान छोड़ देंगे ?

इधर  पंजाब के प्रधानमंत्री माननीय सर सिकन्दर हयात खाँ ने एक नई संघ योजना पेय की है। उन्होंने भारत को सात प्रान्तों में विभक्त किया है । उनके सातों प्रान्त ये हैं- (१) आसाम, बंगाल तथा बंगाल की रियासतें और सिक्कम, (२) बिहार, उड़ीसा, बंगाल के दो-तीन पश्चिमी जिले, (३) संयुक्त-प्रान्त और उसकी रियासतें, (४) मदरास, ट्रावनकोर, मद-ग़म की रियासतें और कुर्ग (५) बम्बई, हैदरावाद, पश्चिमी भारत की रियासतें, मैमूर और मध्य-प्रान्त की रियासतें, (६) राजपूताने की रियासतें (बीकानेर और जेसलमेर को छोड़ कर), ग्वालियर, मध्यभारत 2 और बरार (७) पंजाब, सिन्ध, सीमान्त, काश्मीर, पंजाब की रियासतें, बलूचिस्तान , बीकानेर और - जैसलमेर ।

सर सिकन्दर साहब की इस स्कीम के पेश होने के पहले भारत के ११ प्रान्तों में कांग्रेस का शासन था। इसलिए कांग्रेस की शक्ति को कम करने के लिए उन्हें सबसे पहले विचार करना पड़ा। उनकी इस स्कीम ने आसाम और सीमान्त से कांग्रेस की जड़े उखाड़कर वहाँ मुस्लिम लीग की जड़ें गाढ़ने का विचार किया गया है। केन्द्रीय शासन में तो और भी गड़बड़झाला है। ब्रिटिश इण्डिया में मुसलमानों को ८३ सीटें मिलेंगी और भारतीय रियासतों की ११५ सीटों में से ४२ सीटें मिलेंगी । इन दोनों को मिलाकर केन्द्र में मुसलमानों की संख्या १२५ हो जायगी। जहाँ मुसलमानों को ८२ सीटें मिली हैं, वहाँ सिकन्दरी योजना ने उन्हें १२५ सीटें मिलती हैं।

मै यह मानता हूँ कि सिकन्दरी योजना पाकस्तान की रूप-रेखा नहीं है, पर पाकिस्तान की रूप-रेखा के आधार पर उसकी नींव अवश्य रखी गई है। अपनी लोडरी क़ायम करने के अतिरिक्त जिन्हें राष्ट्र का कुछ भी खयाल है वे तो जरूर कहेंगे कि भारत अखण्ड है और उसके दो भाग नहीं हो सकते। और जो लोग पाकिस्तान का स्वप्न देखते हैं वे अराष्ट्रीय है, उन्हें न देश का कुछ खयाल है, न मुसलमानों का ही कुछ खयाल है। भगवान् ऐसे लोगों को सुबुद्धि दे, हमारा तो यही कहना है।

( स्रोत-सरस्वती पत्रिका --जनंवरी १९४०  में प्रकाशित)

Sunday, June 1, 2025

मुलायम के गांधीवाद की एक झलक


2 अक्टूबर को जो महात्मा गांधी का जन्मदिवस था, उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड के निवासियों द्वारा दिल्ली में आयोजित रैली में शामिल होने के लिए जाते हुए लोगों पर उत्तर प्रदेश की बंदूकधारी पुलिस (पी.ए.सी.) ने गोलियां चलाई और लाठियां मारीं। पुलिस ने जोरदार हमला किया, औरतों को मारापीटा और उन की बेइज्जती की। कितने लोग मरे, कितनी स्त्रियों का बलात्कार हुआ, इस की पुष्टि अभी तक नहीं हुई है. यह सब इसलिए हुआ कि मुलायम सिंह की सरकार ने आदेश दिया कि इन लोगों को किसी हालत में दिल्ली नहीं जाने दिया जाए। अफवाह यह फैलाई गई कि इन लोगों के पास आधुनिक हथियार हैं जिन का उपयोग ये लोग दिल्ली में करेंगे, पर पुलिस आज तक एक भी हथियार नहीं बरामद कर पाई।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमिटी ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर के नरसिंह राव सरकार से मांग की कि वह मुलायम सिंह सरकार को बरखास्त कर दे। पर नरसिंह राव न 'हां' करते हैं, न 'ना' करते हैं। उन की चाल हमेशा यही रहती है कि बस जो हो रहा है चलने दो, समस्याएं अपनेआप अपना हल निकाल लेती हैं।

नरसिंह राव ने अपने इर्दगिर्द के लोगों में से उन सभी को नाकारा कर दिया है जो उन की गद्दी को चुनौती दे सकें। इसलिए वह सोचते हैं कि किसी जोखिमभरे कदम को उठाने की तकलीफ ही क्यों की जाए।

वैसे जहां केंद्र द्वारा किसी राज्य सरकार को बरखास्त करने का हथियार आसानी से इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। वहीं वर्तमान केंद्रीय कांग्रेस नेताओं को यह कानूनी और नैतिक अधिकार तो है ही कि वे मुलायम सिंह सरकार को अपना समर्थन न देने का फैसला कर सकते हैं।
                         
इस समय दोनों पक्षों को जोरदार चुनौतियां दी जा रही हैं। मुलायम सिंह कहते हैं चुनाव कराने हैं तो कराओ। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं बहुमत में आऊंगा। उधर कांग्रेसी खम ठोंक कर कहते हैं हम 222 सीटों पर कब्जा करेंगे-चुनाव तत्काल होने चाहिए ।

पर जैसा कि ऊपर कहा गया है, नरसिंह राव यह सोच रहे हैं कि मुलायम सिंह को अभी गद्दीविहीन नहीं किया जाए। जितने दिन वह मुख्यमंत्री बने रहेंगे, उतनी ही ज्यादा गलतियां करेंगे और जन आक्रोश उतना ही बढ़ेगा।काफी हद तक यह सोच ठीक भी लगती है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति चारों ओर से घिर जाता है तो बह गलतियां ज्यादा करता है।

                        ****

उत्तराखंड आंदोलन के सिलसिले में उत्तर प्रदेश के कुछ समाचारपत्रों में काफी विस्तृत विवरण छापा जो मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को पसंद नहीं आया। फलस्वरूप उन्होंने दो समाचारपत्रों-जागरण व अमर उजाला के विरुद्ध 'हल्ला  बोल' दिया है। इन पत्रों की प्रतियां जलाई गई। हाकरों को मारापीटा गया। कार्यालयों पर धावा बोला गया।

जहां तक मुलायम सिंह का अपने अनुयायियों से यह कहना कि वे ये पत्र पढ़ना बंद कर दें, कुछ हद तक माना जा सकता है. पर मारपीट, कार्यालयों पर धावा, प्रतियां जलाना यह जनतंत्र के विरुद्ध है-प्रेस की स्वतंत्रता तो जनतंत्र का आधार है। यह बात नहीं है कि कोई समाचारपत्र गलती नहीं कर सकता। पर उस पर धावा बोलना जनतंत्र का अपमान है। अगर कोई समाचारपत्र गलत बात कहता है तो उस पर मुकदमा चलाइए उस के कार्यालय को जलाने का प्रयत्न आप के अधिकार में नहीं है-न यह कानूनी है न नैतिक। और अंत में यह उलटा असर भी पैदा करता है-जन-साधारण की सहानुभूति इन पत्रों के साथ हो जाती है और इन की प्रचार संख्या बढ़ जाती है।

( प्रस्तुत लेख सरिता पत्रिका के संपादकीय नवंबर प्रथम 1994 में  प्रकाशित हुआथा। वर्तमान की कुछ घटनाओं को देखते हुए इसे ब्लॉग पर छापना जरूरी लगा)

Friday, May 30, 2025

सेक्युलर आतंकवाद के कम्युनल मृतक



सेक्युलरिज्म शब्द का प्रयोग सबसे पहले जब बर्मिंघम के जॉर्ज जेकब हॉलीयाक ने सन् 1846 के दौरान अनुभवों द्वारा मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने के तौर तरीक़ों को दर्शाने के लिए किया था तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि आने वाले समय में ये शब्द इतना विकृत हो जायेगा कि अपनी मूल भावना को छोड़कर मनुष्यों के जीवन को बेहतर बनाने की जगह उसे और बद से बद्तर बनाने में सर्वोच्च भूमिका निभायेगा।

जॉर्ज जेकब हॉलीयाक के अनुसार, “आस्तिकता-नास्तिकता और धर्म ग्रंथों में उलझे बगैर मनुष्य मात्र के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, बौद्धिक स्वभाव को उच्चतम संभावित बिंदु तक विकसित करने के लिए प्रतिपादित ज्ञान और सेवा ही धर्मनिरपेक्षता है”।
साधारण शब्दों में कहें तो धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलरिज्म धार्मिक संस्थानों व धार्मिक उच्चपदधारियों से सरकारी संस्थानों व राज्य का प्रतिनिधित्व करने हेतु शासनादेशित लोगों के पृथक्करण का सिद्धान्त है।

किंतु बदलते राजनीतिक परिदृश्य, वोट बैंक की बढ़ती चाहत, सत्तालोभी नेताओं एवं कुछ बिके हुए ज़मीर वाले उच्चपदासीन लोगों के कारण धर्मनिरपेक्षता का अर्थ एक वर्ग विशेष या यूं कहें कि मज़हब विशेष के लिए विशेषाधिकार का प्रावधान करना हो गया है जहां उस मज़हब का किसी भी तार्किक रूप में भी विरोध मात्र करना ही आपको कम्युनल बना देता है एवं उस मज़हब विशेष का समर्थन करना, उसको विशेषाधिकार देना या विशेषाधिकारों की पैरवी करना उच्च श्रेणी का सेक्युलर।
और ये विश्वभर में अपनी इतनी गहरी पैठ बना चुका है कि इसका विरोध करने मात्र से ही आपके लिए "सर तन से जुदा" के नारे लगाती विवेकहीन मजहबी उन्माद में अंधी जोम्बी आर्मी रक्त पिपासु होकर भटकने लगती है।

स्थिति इस हद तक है कि चाहे विश्वभर के आतंकी संगठन उसी मज़हब से प्रेरित हों, उसी की किताब को अपना आदर्श बताते हों, आतंकी संगठनों के सरगना उसी मज़हब के हों और अनेकों आतंकियों ने खुलेआम या फिर कहीं पकड़े जाने पर इस बात को कबूला भी हो फिर भी बड़ी ही बेहयाई से हर छोटे-बड़े स्तर पर हर देश धर्म पार्टी कुनबा जाति का हर छोटा-बड़ा नेता या आज की मॉडर्न जेनरेशन की भाषा में कहें तो इंफ्लूएंसर सीना चौड़ा करके ये कहता पाया जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता।

भारत जैसे देश में तो ये तब और भी घातक हो जाता है जब इस विक्षिप्तता को अलग-अलग लोग नाना प्रकार से उचित ठहराने की कोशिश करते दिखते हैं।

इन लोगों ने मजहबी जिहाद को आतंकवाद नाम देकर उसको भी सेक्युलर बना दिया है और इस कथित सेक्युलर आतंकवाद की आड़ में धर्म देखकर होती हत्याओं को खूब जस्टिफाई किया जाता रहा है।
कभी किसी समान मज़हब वाले के संपार्श्विक क्षति (Collateral damage) का उदाहरण दिया जाता है तो कभी हमलावरों को ग़रीब पिछड़ा और सताया हुआ बताकर मामले को इमोशनल एंगल दे जनता का ध्यान मूल हमले से हटाकर सहानुभूति की तरफ करने का प्रयास किया जाता है।
कभी किसी को मानसिक विक्षिप्त बताया जाता है तो कभी जब कोई और रास्ता नहीं मिलता तो वही घिसे पिटे एकाध उदारहरण के द्वारा ये बताया जाता है कि एक आदमी से पूरे मज़हब पर सवाल नहीं किया जा सकता, ऐसा करने वाले दंगा भड़काना चाहते हैं, कम्युनल हैं।

और मज़े की बात ये है कि ये सारे हथकंडे अपनाते समय किसी को मृतकों की परवाह नहीं होती है, सिर्फ फ्लैट फेस के साथ एक लाइन में फेक माफीनामा पढ़कर सब संतुष्ट हो जाते हैं।

और हां ये तो लिखना ही भूल गया कि चाहे मारने वाला आंतकी सेक्युलर हो पर मरनेवाला मृतक हमेशा कम्युनल होता है जिसके स्वधर्मियों की उग्र और भड़काऊ भाषण से राहुल देव होकर उस सताये हुए ग़रीब सेक्युलर आतंकी ने उस निर्दोष कम्युनल को मारने का फैसला लिया होता है।

हालांकि एक बार अजमल आमिर कसाब को कलावा बांध के इस सेक्युलर आतंकवाद को कम्युनल बनाने की कोशिश की गई थी लेकिन अमर जवान तुकाराम ओंबले ने उसको जीवित पकड़ आतंकवाद को कम्युनल होने से बचा लिया था। 

ताजातरीन मामला पहलगाम में हुआ सेक्युलर अटैक है (हालांकि इसको ताजा भी नहीं कह सकते क्योंकि मैं लिखने में थोड़ा लेट हो गया) जहां कुछ मासूम सेक्युलर आतंकियों ने 26 लोगों, जिनमें एक सेक्युलर था और 25 कम्युनल, को धर्म पूछकर, पैंट खोलकर कम्युनलिज्म की पुष्टि करके गोली मार‌ दी। एक सेक्युलर को क्यों मारा ये तो वहीं जानें। हो सकता है उसको कलमा पढ़ना ना आता हो इसलिए कम्युनलिज्म की इस गेहूं में सेक्युलरिज्म का वो जौ पिसा गया होगा।
घटना के बाद आनन-फानन में हमारी सरकार एक्टिव हुई और इसको आतंकी घटना घोषित किया गया क्योंकि आप जानते हैं आतंकवाद सेक्युलर होता है, ऐसे में इसको मजहबी हमला बताया जाता तो शायद सरकार का कुछ (20-25) वोटर नाराज़ हो जाता।

फिर इसके बाद एक्टिव हुए इस सेक्युलर आतंकवाद के सेक्युलर प्रवक्ताओं ने चीख-चीखकर बताना शुरु किया कि वो जो एक सेक्युलर मरा है महज़ उसकी वजह से ही ये हत्याएं धर्म से परे होकर की गई हैं इसको धर्म से जोड़कर ना देखा जाये। पक्ष-विपक्ष और तथाकथित बड़े-बड़े लोगों ने एक स्वर में श्रृगालों की तरह इसकी धुन निकालनी शुरु की और कम्युनल समाज को ये मानना ही पड़ा कि हां ये सब सही कह रहे हैं।

जैसा कि अंदेशा था देशभर में इसकी कड़ी निन्दा हुई, कुछेक कम्युनलों ने तो भर्त्सना तक कर डाली, सोशल मीडिया के धुरंधर कम्युनल तो गाली-गलौज पर उतर आए थे।
कुछ दिनों तक ये दौर चला फिर लगभग दो हफ्ते के बाद सरकार ने जनता के भारी दबाव में आकर प्रत्युत्तर में कुछ आतंकवादी ठिकानों पर हवाई हमला किया और इसको नाम दिया "ऑपरेशन सिंदूर"।

तब सेक्युलर प्रवक्ताओं ने इसकी भर्त्सना की कि ये नाम तो कम्युनल है और धर्म देखकर रखा गया है। नाम किस आधार पर और किसने रखा ये तो नहीं पता पर ये सच है कि सरकार की सोच इसको भुनाकर कम्युनलों का वोट लेने की ही थी किंतु इतनी होशियारी से कि सरकार के सेक्युलर वोटर नाराज़ ना हो जायें। अतः इस ऑपरेशन की मीडिया ब्रीफिंग के लिए एक सेक्युलर को चुना गया ताकि सबका साथ बना रहे।
फिर विदेशी मुल्क के प्रत्युत्तर के साथ थोड़े दिनों तक मिसाइल वार होती रही और अंततः युद्धविराम की घोषणा हुई जो कि होनी ही थी और उसमें कुछ ग़लत नहीं था।

फिर शुरु हुआ इसके प्रचार प्रसार का सिलसिला जिसके लिए पहले तो सरकारी थिंक टैंक ने एक यात्रा निकाली न जाने क्यों और फिर लोगों की शादियों में सिन्दूर दान करने की नई स्कीम। सरकार इस ऑपरेशन को भुनाने में जोर-शोर से लगी थी।
उधर इतने दिनों तक अप्रत्याशित रूप से सरकार के साथ खड़ा रहने वाला विपक्ष नई बकलोली पर उतर आया। कुछ ने पूरे ऑपरेशन को फेल बताया और सरकार को कोसने का नया बहाना ढूंढ लिया और कुछ इंदिरा गांधी को याद करके कोस रहे थे जैसे इंदिरा जी होतीं तो अबतक आधा पाकिस्तान कब्जा कर ली होतीं।

इन सब ढकोसलों के बीच सेक्युलर आतंकवाद के कम्युनल मृतक के शव को अपनी गोद में लिये अश्रुपूरित नेत्रों से अकथनीय वेदना का प्रस्फुटन करती उस निर्दोष विधवा के जीवन की किसी को सुध नहीं जो हाथों में लाल मेंहदी और मांग में दमकता सिंदूर सजाये नवविवाहिता के रुप में अपने नये जीवन की शुरुआत के लिए कुछ समय बिताने, कुछ खुशियां जीने और कुछ यादें संजोने गई थी और वहां से अपने पति के शव पर क्रंदन करती, उजड़ी हुई मांग, रक्तरंजित हथेलियों में धुंधली होती मेंहदी और वीरान सी आंखों में आंसुओं के पीछे एक उम्र भर का दर्द समेटे वापस आई और इस ढकोसले पूर्ण राजनीति की बलिवेदी पर उसका पति बस एक आंकड़ा बनकर रह गया।

वो मासूम कैसे इस निर्लज्ज शूरवीरों से उम्मीद लगाये कि कोई इस सेक्युलर आतंकवाद की हकीकत कहने का हौंसला जुटा पायेगा? कोई खड़े होकर सच को आईना दिखाने की कोशिश करेगा?
शायद कोई नहीं कर पायेगा और ये प्रकिया यूं ही चलती रहेगी लोग अपनी धार्मिक पहचान के कारण मरते रहेंगे पर आतंकवाद हमेशा सेक्युलर ही रहेगा...!



Tuesday, May 27, 2025

संगत की लत

उसकी रात की नींद पूरी नहीं हुई थी और वह इस अधनींदे अवस्था में अपनी गाड़ी में पेट्रोल भरवा रहा था और तभी उसका फोन बजता है और जब वह उसे उठाता है तो तब उसकी दुसरी ओर वह एक लड़की की जानी पहचानी आवाज़ रहती है जो बच्चों जैसी चंचलता अपने वाणी में छलकाते हुए पूछती है "चाय पियोगे?", वह उस आवाज़ को कभी मना नहीं कर सकता था क्योंकि उस आवाज में एक अनकहा आकर्षण था जिसका वह आदि हो चुका था। उस लड़की के चाय के आमंत्रण को स्वीकारते हुए जब वह अपनी गाड़ी मोड़ कर जा रहा था तो वह एक ऐसी ग्लानि से ग्रसित था जैसी किसी शराब की लत लगे इंसान को अपनी मेहनत की कमाई शराब में खर्च करते हुए होती है क्योंकि वह जानता था कि उसके पास ऑफिस के लिए तैयार होने को सिर्फ आधा ही घंटा है पर तब भी वह इस कीमती समय को उसके ऊपर न्योछावर करने जा रहा था। वह रास्ते भर अपने आप को कोसता कि आखिर क्यों उसे कभी "ना" नहीं बोल पाता, आखिर क्यों अपना जरूरी से जरूरी काम छोड़कर उसके साथ वक्त बिताना उसकी आदत सी बन चुकी थी? क्यूं ऐसा होता था की उसका मुस्कुराता-चहकता चेहरा ही उस लड़के को संसार में अपनी प्रसन्नता का एकमात्र स्रोत लगने लगा था और वह उस पर आए दुख और पीड़ा को अपने ऊपर लेने को आतुर रहता था। उसने बार-बार अपने आप को यह समझाने की कोशिश की थी कि यह प्रेम नहीं है ,यह तो मात्र तुम्हारे अंदर की खालीपन को भरने की तुम्हारी लालसा ही है पर रात भर अपने आप को तरह-तरह के मनोवैज्ञानिक कारण देकर समझाने का प्रयास और उस लड़की से दूरी बनाकर रखने के अपने आप से किए गए वादे उस लड़की के एक कथन पर धरे के धरे रह जाते थे।

इसी तरह आधा अपने विचारों से लड़ता और आधा इस दुनिया के सामने सामान्य बनने का ढोंग करता हुआ वह लड़का उस लड़की के पास पहुंचा, वह लड़की उसे देर आने के लिए बनावटी डांट लगा रही थी (उस लड़के के वैचारिक ऊहापोह ने उसकी गाड़ी की गति धीमी कर दी थी और ट्रैफिक में उलझा दिया था)जिसे सुन इस लड़के के चहरे एक हल्की सी मुस्कान दिखने लगी, पता नहीं क्यों लड़कों को अपनी पसंदीदा महिला की डांट सुनना कुछ ज्यादा ही अच्छा लगता है। उसके बाद उन दोनों ने चाय पी और यूं तो चाय, चाय जैसी ही होती है पर इस लड़की के साथ हर एक घूंट कुछ अलग ही आनंद देता था। उसके बाद उस लड़की के आदेशनुमा आग्रह पर दोनों ने साथ नाश्ता भी किया, महिने के 15 दिन नाश्ता भुला देने वाला और बाकी के 15 दिन सिर्फ दो समोसे का कामचलाउ नाश्ता करने वाला लड़का एक Full-fledged नाश्ता उस लड़की के साथ कर रहा था पर असल बात तो यह थी उस लड़के की भूख पेट की नहीं,आत्मा की थी।

नाश्ता करने के बाद उसे विदा करने के बाद वह बेतरतीबी से ऑफिस के लिए तैयार हुए और अपनी गाड़ी लेकर ऑफिस के लिए चल पड़ा,उसे पता था कि वह ऑफिस के लिए लेट हो चुका है जिसके लिए उसे वहां कोई बहाना बनाना पड़ेगा और हो सकता है कोई सीनियर इसके लिए उसे फटकार भी लगा दे पर वह खुश था और रस्ते भर मुसकुराते हुए जा रहा था क्यूंकि शायद शराबी को उसके लिए शराब की एक और बोतल मिल गई थी।

लेखक- अंशुमान "निर्मोहिया"

Monday, April 21, 2025

काशी में बिस्मिल्लाह खां का नाद

बनारस समय का मिश्रण हैं, जहां पर एक तरफ आपको काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अर्वाचीन तकनीक पर ध्यान शोध करते हुए छात्र मिलेंगे वहीं घाट किनारे हजारों साल से सतत चलती आ रही हमारी सनातन संकृति अपने संपूर्ण वैभव्य के साथ आपका स्वागत करते मिलेगी। तो मैं इतिहास से पुरातन और परंपराओं की अग्रजा इस नगरी का अनुभव करने काशी की ओर निकल पड़ा इन घाटों की राह छानने और जगह जगह पसरे इतिहास और संस्कृति को अंशों को बटोर लेने के उद्देश्य से। असी, गौरी केदारेश्वर, दशाश्वमेध और मणिकर्णिका के घाट विचरने और बाबा विश्वनाथ के अनुपम दर्शन करने के पश्चात मुझे मेरा घुमक्कड़पना मुझे कुछ और आगे जाने को विवश कर रहा था औरमुझे मेरे कदम यूहीं आगे बढ़ाते चले गए।
जब मैं बरबस पंचगंगा घाट के समीप पहुंचा तो वहां स्थित मंगला गौरी मंदिर के महात्म्य से मैं परिचित था और दर्शनाभिलाषी बन मैं सीढ़ियां चढ़ता हुआ मंदिर पहुंचा, जब वहां से निकल रहा था तो मुझे उसके सामने दिखा बालाजी मंदिर, न जाने क्यूं मुझे एहसास हुआ कि शायद मैंने इस जगह के बारे में कहीं पढ़ रखा है। तभी मुझे इस ऊहापोह में उलझा देख वहां एक फूल बेचती हुई माई ने कहा "का हुआ बबुआ, का ताके जा रहे हो?", मैं वैसे भी अपने ख्यालों में खोए रहने के लिए कुख्यात हूं इसलिए मैं उन प्रश्नों का उत्तर देने को शब्द तलाश ही रहा था कि वो समझ गई कि मैं इस मंदिर में बारे में जिज्ञासु हूं। मेरे अनकहे प्रश्नों को हल करते हुए उन्होंने कहा कि अरे जाओ ये बड़ा ही दिव्य मंदिर है यहीं उस्ताद बिस्मिल्लाह खान रियाज़ किया करते थे।

माई के ऐसा कहते ही मुझे अचानक से अहसास हुआ कि काफी समय पहले उस्ताद के बारे में पढ़ते हुए मैंने इस मंदिर का नाम सुना था। जैसे ही मैंने मंदिर के अहाते पर प्रवेश किया तब एक अपने अंतस में एक शान्ति का अनुभव किया, मंदिर के चौखट में बाहर उसका इतिहास लिखा था जो बता रहा कि यह मंदिर ग्वालियर के सिंधिया घराने के संरक्षण में है, जब मैं अंदर घुसा को सामने शेषशायी भगवान विष्णु की सुंदर मूर्ति थी, दर्शन के पश्चात जब मैं वहां की खिड़की से एकटक सदानीरा मां गंगा को ताक रहा था और तभी मैंने वहां बैठे पुजारी जी से पूछा कि यहां सच में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां रियाज़ करते थे ?
मेरे इस प्रश्न पर पहले उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे निहारा और ऐसे देखा मानों मैने कुछ अलग ही पूछ लिया था, फिर मेरी जिज्ञासा को शांत करने के उद्देश्य से उन्होंने कहा कि "बाबू, यहां पहले उस्ताद जी के मामा रियाज किया करते थे समय के साथ जब यह बात प्रत्यक्ष हो गई कि इस कला की बरकत उनके भांजे को भी प्राप्त है तब उन्होंने उस्ताद साहब को भी इस मंदिर में रियाज करने की अनुमति दे दी लेकिन साथ ही साथ ही अच्छे चेतावनी विधि की अगर तुम कुछ भी अद्भुत या अलौकिक देखोगे तब इसके बारे में किसी को नहीं बताना।"
कहानी को पढ़ते हुए पुजारी जी ने कहा कि "तो इसी तरह उस्ताद साहब यहां रियाज़ करते और कला की बारीकियां सीखते थे। एक दिन जब वो अभ्यास में तल्लीन थे और इन रागों की जटिलताओं को साध रहे थे तब यकायक उन्होंने जब आँखें खोली तब पाया कि स्वयं जगतनियंता-जगदाधार श्रीहरि विष्णु बैठे थे और रस लेकर उस्ताद साहब की धुनों को सुन रहे थे। उन्हें देखते ही उस्ताद साहब हतप्रभ से भागे-भागे अपने मामा के पास पहुंचे और सारा कच्चा-चिट्ठा सुना डाला। यह सुनकर उनके मामा झल्लाए और कहा कि तुम्हें मुझे उनके बारे में नहीं बताना था, अब वह नहीं आयेंगे।"

मेरा मन ये चाहता था कि मैं इस कहानी को झुठला दूं लेकिन यह मंदिर और यहां की शांति का आभास कर मैं अपने पूरे तर्क के साथ भी इसे मिथ्या सिद्ध नहीं कर पा रहा था। बनारस का वैभव्य, यहां की पुरातन सनातन संस्कृति मुझे यह विश्वास हो रहा था कि इस पूरे विश्व में अगर कहीं यह संभव है तो वो केवल यहीं है। वापस होटल पहुंचकर मैं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां जी के रागों में डूब गया और कहीं न कहीं उनके रागों से बनारस को समझने का असंभाव्य प्रयास कर रहा था।

 लेखक: अंशुमान "निर्मोहिया"

Friday, April 11, 2025

क्रांति और क्रांतिकारियों का शहर

    महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद 


इलाहाबाद अब का प्रयागराज क्रांतिकारियों का गढ़ था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल आज भी उसकी कहानी बया करतीं हैं। सबसे बड़ा स्थल तो अल्फ्रेड पार्क जिसे अब लोग आजाद पार्क के नाम से जानते हैं जहां अपनी वीरता और बलिदान की निशानी छोड़ गए महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद। साल दो साल पहले प्रदर्शनी लगा था उसी की तस्वीरें मैं यहां साझा कर रहा हूं।

आजादी की लड़ाई में प्रयागराज की भूमिका अग्रणी रही. 1857 की स्वतंत्रता संग्राम में प्रयागराज से हजारों की संख्या में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया. इसके प्रत्यक्ष उदाहरण चौक में स्थित नीम का पेड़ और सुलेम सराय में स्थित फांसी इमली पेड़ है..!
जनरल जेम्स नील के आदेश पर ब्रिटिश सेना ने 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशवासियों के विद्रोह को कुचल दिया था। बाजार के बीचों-बीच, एक चर्च और कोतवाली के पास , एक नीम का पेड़ है। पेड़ के बगल में खड़े स्मारक पर एक शिलालेख है जिसमें लिखा है कि यह शहीद स्मारक उन 800 लोगों की याद में बनाया गया था जिन्हें जून 1857 में इस इलाके में सात पेड़ों पर फांसी दी गई थी। पोस्टरों और होर्डिंग्स ने स्मारक को खराब कर दिया है और फीके पड़ चुके शिलालेख को पढ़ना मुश्किल है। एक और स्मारक है जो एक फुटस्टोन के आकार का है जिसे भी खराब कर दिया गया है।
सात पेड़ों में से सिर्फ़ यही एक पेड़  बचा हुआ है। स्थानीय लोगों का कहना है कि एक समय में यह पेड़ काफी घना था, लेकिन चौक पर बिजली के खंभे लगाने और दुकानें और घर बनाने के लिए इसकी शाखाओं को काट दिया गया। आजकल, सिर्फ़ स्वतंत्रता दिवस या दूसरे राष्ट्रीय दिवसों पर ही लोग यहाँ फूल चढ़ाकर श्रद्धांजलि देने आते हैं।
इलाहाबाद( वर्तमान में प्रयागराज) में इस सामूहिक फांसी की घटना का उल्लेख कई ऐतिहासिक पुस्तकों और दस्तावेजों में मिलता है। हीदर स्ट्रीट ने Rebellion of 1857 Origins, Consequences and the Themes में लिखा है : 1857 को इलाहाबाद पहुंचने के बाद, नील ने हजारों सिपाहियों और संदिग्ध विद्रोहियों के साथ-साथ निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार था। इलाहाबाद के आसपास नील की सेना की कार्रवाइयों का वर्णन करते हुए, एक अधिकारी ने लिखा: 'जो भी मूल निवासी दिखाई दिया, उसे बिना किसी सवाल के गोली मार दी गई, और सुबह कर्नल नील ने रेजिमेंट की टुकड़ियाँ भेजीं ... और हमारे बंगलों के खंडहरों के पास के सभी गाँवों को जला दिया, और जितने भी मूल निवासी पकड़े गए, उन्हें सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर लटका दिया।'"

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जनरल नील की क्रूरता और इलाहाबाद में फांसी का भी जिक्र किया है। "मेरे अपने शहर और जिले इलाहाबाद और पड़ोस में जनरल जेम्स नील (1810 - 1857) ने अपना 'खूनी असाइज' किया था। सैनिक और नागरिक समान रूप से खूनी असाइज कर रहे थे, या बिना किसी असाइज के मूल निवासियों की हत्या कर रहे थे, चाहे उनकी उम्र या लिंग कुछ भी हो। यह हमारे ब्रिटिश संसद के रिकॉर्ड में है, गवर्नर-जनरल इन काउंसिल द्वारा घर भेजे गए कागजात में, कि 'बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों के साथ-साथ विद्रोह के दोषियों की भी बलि दी जाती है'।"

कुछ दस्तावेजों के अनुसार, इन पेड़ों पर फांसी के फंदे लटकाए गए थे और लोगों को गाड़ियों में भरकर फांसी पर चढ़ाया गया था। भागने की कोशिश करने वालों को गोली मार दी गई। आस-पास के कई गांव जला दिए गए।

'पेड़ चौक इलाहाबाद के अभी गवाही देते हैं।
खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू के पीते हैं।।'

1857 क्रांति की पूर्व संध्या पर इन पंक्तियों को याद कर ताम्रपत्र प्राप्त किए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ओम प्रकाश जायसवाल 'लल्लू मरकरी' बताते हैं, कि चंद्रशेखर आजाद ने अपने खून से इंकलाब लिख दिया था। वो एक ऐसे वीर सेनानी थे जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी कांपती थी।
किसी न्यूज वेबसाइट और इंटरनेट से ये तस्वीरें मिली हैं।


ये देश का नक्शा निश्चिंत ही HSRA के क्रांतिकारियों द्वारा बनाया गया है।


ये अद्भुत लगा देखकर कि तमाम क्रांतिकारियो के मूल हस्ताक्षर सहेज कर रखे गए हैं।



प्रदर्शनी में काकोरी कांड के सभी क्रांतिकारियों की सामूहिक फोटो प्रदर्शित की गई।

इस लेख को जरूर पढ़ें~ काकोरी के वीरों से परिचय


माय डियर दीदी, फैजाबाद जेल,16 दिसंबर 1927

 मैं अगली दुनिया में जा रहा हूं, जहां कोई सांसारिक पीड़ा नहीं है और बेहतर जीवन के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। जहां न मृत्यु होगी न विनाश होगा। मैं मरने वाला नहीं, बल्कि हमेशा के लिए जीने वाला हूं। अंतिम दिन सोमवार है। मेरा आखिरी बंदे (चरण स्पर्श) स्वीकार करो... मुझे गुजर जाने दो। आपको बाद में पता चलेगा कि मैं कैसे मरा। भगवान का आशीर्वाद हमेशा आपके साथ रहे। आप सबको एक बार देखने की इच्छा है। यदि संभव हो तो मिलने आना। बख्शी को मेरे बारे में बताना। मैं आपको अपनी बहन मानता हूं और आप भी मुझे नहीं भूलेंगी। खुश रहो... मैं हीरो की तरह मर रहा हूं। 

-तुम्हारा अशफाक उल्ला


       जिंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
       वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं..।

9 अगस्त, 1925 को शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला और उनकेअन्य क्रान्तिकारी साथियों ने क्रान्तिकारी पार्टी के लिए धन इकट्ठा करने के उद्देश्य से लखनऊ के करीब काकोरी के पास रेलगाड़ी रोक सरकारी खजाना लूटा। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद के अलावा बाकी सभी क्रान्तिकारी पकड़े गये। भगतसिंह भी तब कानपुर निवास के समय हिन्दुस्तान रिपब्लिकन पार्टी में भर्ती हो चुके थे। 'विद्रोही' नाम से मई, 1927 में भगत सिंह ने 'काकोरी के वीरों से परिचय' शीर्षक लेख पंजाबी में छपवाया। उस लेख के छपते ही भगतसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। चारपाई पर हथकड़ी लगे बैठे भगतसिंह का प्रसिद्ध चित्र इसी गिरफ्तारी के समय लिया गया। 
उ०प्र० राजकीय अभिलेखागार की प्रदर्शनी एक तस्वीर भगत सिंह के फांसी के सजा के आदेश की भी दिखी। जिसमें स्मार्ट फोन के कैमरे में कैद कर लिया गया। 

ये तस्वीर भारत माता के महान सपूत क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के बलिदान को दिखा रहा है।

अपने साथियों के चले जाने के बाद भी चंद्रशेखर आज़ाद अंडरग्राउंड होकर लगातार काम करते रहे। उन्होंने अपने साथी भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना पर फोकस किया लेकिन 27 फरवरी, 1931 को जब आज़ाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने साथी क्रांतिकारी सुखदेव राज से मिलने गए थे, तभी पुलिस को उनके बारे में पता लगा और उन्हें घेर लिया गया।आज़ाद इलाहाबाद के एल्फ़्रेड पार्क में अपने साथी सुखदेवराज के साथ बैठे बात कर रहे थे कि सामने की सड़क पर एक मोटर आकर रुकी, जिसमें से एक अंग्रेज़ अफ़सर नॉट बावर और दो सिपाही सफ़ेद कपड़ों में नीचे उतरे।
सुखदेवराज लिखते हैं, 'मोटर खड़ी होते ही हम लोगों का माथा ठनका। गोरा अफ़सर हाथ में पिस्तौल लिए सीधा हमारी तरफ़ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से अंग्रेज़ी में पूछा, 'तुम लोग कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?' आजाद का हाथ अपनी पिस्तौल पर था और मेरा अपनी। हमने उसके सवाल का जवाब गोली चलाकर दिया..! मगर गोरे अफ़सर की पिस्तौल पहले चली और उसकी गोली आज़ाद की जाँघ में लगी, वहीं आज़ाद की गोली गोरे अफ़सर के कंधे में लगी। दोनों तरफ़ से दनादन गोलियाँ चल रही थीं। अफ़सर ने पीछे दौड़कर मौलश्री के पेड़ की आड़ ली। उसके सिपाही कूद कर नाले में जा छिपे। इधर हम लोगों ने जामुन के पेड़ को आड़ बनाया। एक क्षण के लिए लड़ाई रुक सी गई। तभी आज़ाद ने मुझसे कहा मेरी जाँघ में गोली लग गई है। तुम यहाँ से निकल जाओ.'

सुखदेवराज आगे लिखते हैं, 'आज़ाद के आदेश पर मैंने निकल भागने का रास्ता देखा. बाईं ओर एक समर हाउस था। पेड़ की ओट से निकलकर मैं समर हाउस की तरफ़ दौड़ा। मेरे ऊपर कई गोलियाँ चलाई गईं, लेकिन मुझे एक भी गोली नहीं लगी। जब मैं एल्फ़्रेड पार्क के बीचों-बीच सड़क पर आया तो मैंने देखा कि एक लड़का साइकिल पर जा रहा है। मैंने उसे पिस्तौल दिखाकर उसकी साइकिल छीन ली। वहाँ से मैं साइकिल पर घूमते-घूमते चाँद प्रेस पर पहुँचा। चाँद के संपादक रामरख सिंह सहगल हमारे समर्थकों में से थे। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं हाज़िरी रजिस्टर पर फ़ौरन दस्तख़त करूँ और अपनी सीट पर बैठ जाऊँ.'

डिप्टी एसपी ठाकुर विश्ववेश्वर सिंह और पुलिस अधीक्षक सर जॉन नॉट बावर ने पूरे पार्क को घेर लिया था।
बावर ने पेड़ की आड़ लेकर चंद्रशेखर आज़ाद पर गोली चलाई जो उनकी जांघ को चीरकर निकल गई। दूसरी गोली विश्ववेश्वर सिंह ने चलाई, जो उनकी दाहिनी बांह में लगी। घायल होने के बाद आज़ाद लगातार बाएं हाथ से गोली चलाते रहे। आज़ाद ने जवाबी हमले में जो गोली चलाई वह विश्ववेश्वर सिंह के जबड़े में लगी।

उस समय में उत्तर प्रदेश के आईजी रहे हॉलिंस ने 'मेन ओनली' पत्रिका के अक्तूबर, 1958 के अंक में लिखा था, "आज़ाद की पहली ही गोली नॉट बावर के कंधे में लगी थी। पुलिस इंस्पेक्टर विशेश्वर सिंह आज़ाद पर गोली चलाने के फेर में एक पेड़ के पीछे छिपे हुए थे।"

"तब तक आज़ाद को दो या तीन गोलियाँ लग चुकी थीं लेकिन तब भी उन्होंने विशेश्वर के सिर का निशाना लगाया और वो गोली निशाने पर लगी। उस गोली ने विशेश्वर का जबड़ा तोड़ दिया। ये आज़ाद के जीवन की आखिरी लेकिन सबसे बड़ी लड़ाई थी ! "

हॉलिंस आगे लिखते हैं, "आज़ाद इतने अच्छे निशानेबाज़ थे कि उनकी चलाई हुई हर गोली सामने के पेड़ पर एक आदमी की औसत ऊँचाई की दूरी पर लगी थी। दूसरी तरफ़ नॉट बावर और विशेश्वर सिंह की गोलियाँ 10-12 फ़ीट की ऊँचाई पर लगी थीं। मैंने आज़ाद से अच्छा निशानेबाज़ अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। "

इससे प्रतीत होता था कि आज़ाद का अंतिम समय तक मानसिक संतुलन कितना ठीक था जब कि पुलिस वाले अंधाधुँध गोलियाँ चला रहे थे ।

आज़ाद के मरने के बाद भी नॉट बावर की हिम्मत नहीं हुई कि वो उनके पास जाएं। उसने अपने एक सिपाही को आदेश दिया कि ये देखने के लिए कि आज़ाद जीवित तो नहीं हैं, उनके पैरों पर फ़ायर करो। उसी समय भटुकनाथ अग्रवाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी के छात्र थे और हिन्दू छात्रावास में रहते थे। बाद में उन्होंने लिखा कि 27 फ़रवरी की सुबह जब वो हिन्दू बोर्डिंग हाउस के गेट पर पहुँचे तो उन्हें गोली चलने की आवाज़ सुनाई दी। तब तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र अल्फ़्रेड पार्क के आसपास इकट्ठा होने शुरू हो गए थे।

दो मजिस्ट्रेटों ख़ास साहब रहमान बख़्श और ठाकुर महेंद्रपाल सिंह के सामने चंद्रशेखर आज़ाद के पार्थिव शरीर का निरीक्षण किया गया।
आठ लोगों ने उनके पार्थिव शरीर को उठाकर एक गाड़ी में रखा। लेफ़्टिनेंट कर्नल टाउनसेंड और उनके दो साथियों डॉक्टर गेड और डॉक्टर राधेमोहन लाल ने आज़ाद के शव का पोस्टमॉर्टम किया।

आज़ाद के दाहिने पैर के निचले हिस्से में दो गोलियों के घाव थे। गोलियों से उनकी टीबिया बोन भी फ़्रैक्चर हुई थी। एक गोली दाहिनी जाँघ से निकाली गई। एक गोली सिर के दाहिनी ओर पेरिएटल बोन को छेदती हुई दिमाग में जा घुसी थी और दूसरी गोली दाहिने कंधे को छेदती हुई दाहिने फ़ेफड़े पर जा रुकी थी।

विश्वनाथ वैशम्पायन लिखते हैं, 'आज़ाद का शव चूँकि भारी था, इसलिए उसे स्ट्रेचर पर नहीं रखा जा सका। चंद्रशेखर आज़ाद चूँकि ब्राह्मण थे, इसलिए पुलिस लाइन से ब्राह्मण रंगरूट बुलवाकर उन्हीं से शव उठवाकर लॉरी में रखा गया था।"

पार्क में मेरे मित्र ने इस तस्वीर को खींचा था

अल्फ़्रेड पार्क में जिस पेड़ के पीछे आज़ाद की मृत्यु हुई थी, आम लोगों ने कई जगह आज़ाद लिख दिया था।
वहाँ की मिट्टी भी लोग उठा कर ले गए थे. उस स्थान पर रोज़ लोगों की भीड़ लगने लगी. लोग वहाँ फूल मालाएं चढ़ाने और दीपक जलाकर आरती करने लगे।

इसलिए एक दिन अंग्रेज़ों ने रातों-रात उस पेड़ को जड़ से काट कर उसका नामोनिशान मिटा दिया और ज़मीन बराबर कर दी थी. काटे हुए पेड़ को एक सैनिक लॉरी में लाद कर दूसरे स्थान पर फेंक दिया गया.

अक्तूबर, 1939 में उसी जगह पर बाबा राघवदास ने एक और जामुन के पेड़ को लगाया। जो आज भी वहां मौजूद है।

चंद्रशेखर आज़ाद  हमेशा आजाद रहे । ब्रिटिश राज कभी इन्हें गुलाम नहीं रख पाई जबतक जीवित रहे।
उन्होंने खुद को सर में गोली मारी थी और अपनी मृत्यु के माध्यम से उन्होंने   "कभी भी जीवित नहीं पकड़े जाने का अपना संकल्प सुनिश्चित किया। अंतिम समय तक आज़ाद (स्वतंत्र) रहे।"
 
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, 
आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे....!"

Saturday, March 15, 2025

सुख का सोता

जिन अथाह सागर जैसी आंखों में आप सर्वस्व निझावर कर डूब जाना चाहते थे जब उन्ही आंखों में आंसुओं की गंगा-जमुना उमड़ते देखते हो जिसे वो अपने चेहरे की बेरंग हंसी से छुपा देना चाहती है तब आपको आभास होता है कि अक्सर मेरी खुशियों का उद्गम बनने वाली तुम्हारे इन दो प्रेमिल नैनों से दुखों का सोता भी फूट सकता है। आप चाहते हैं उसी क्षण इस सृष्टि का विधान बदल डालें और उसे इस दुःख के बोझ से उबार दें किंतु नियति के सामने आप मजबूर, आप पूरा मन लगा अंदर के उत्साह से एक चुटकुला या कोई किस्सा याद दिलाते हैं जिससे उसकी बेरंग मुस्कान की रंगत कुछ बढ़ जाए।

इस पूरी प्रक्रिया को करते हुए आपको एक बार पुनः वही एहसास होता है जिसने आपको इस लड़की की प्रेमपाश में बांधा था और इस तरह पहले से ज़्यादा आप उससे बेसाख्ता प्रेम करने लगते हैं।

~ अंशुमन "निर्मोहिया"

Sunday, February 9, 2025

बस यूंही लिख दिया

इतराना उसका खूबसूरती पर
न जाने कैसा अहंकार है.....?
काम वासना डूबी
उसे किससे प्यार है...?
ये सौंदर्य जीवन 
ईश्वर की देन है
कुछ क्षणों तक रहेगा
प्रकृति का नियम है 
इसके आगे सब मौन है..!
एक दिन तुम यू बैठोगी
आंगन में सोचोगी
मेरे बारे में
धुंधली सी यादों में 
मैं मासूम नजर आऊंगा
हा वो लड़का जो 
बिना स्वार्थ के
तुमसे मिलता था
तब पछताकर क्या होगा
हाथ से सब निकल चुका होगा
एक नया संसार होगा 
जिसमे न चाहते हुए जीना होगा
घुटकर जीवन जीने से क्या होगा
आज जवानी है कल बुढ़ापा होगा
आज जीवन है कल मृत्यु होगा
इस चक्रव्यूह से निकलो तुम
अर्जुन की तलाश में
कृष्ण को न भूलो तुम..!